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________________ ताओ उपनिषद भाग २ कुछ है, जो फूल में भी है, चांद में भी है, आंख में भी है। सौंदर्य कुछ अलग है; फूल से भिन्न है, चांद से भिन्न है, आंख से भिन्न है। और आंख जो अभी सुंदर मालूम पड़ रही थी, क्रोध से भर जाए और असुंदर हो जाएगी। घृणा से भर जाए और असुंदर हो जाएगी। आंख वही रहेगी, लेकिन कुछ खो जाएगा। तो निश्चित ही सौंदर्य न तो फूल है, न चांद है, न आंख है। सौंदर्य कुछ और है। लेकिन सौंदर्य को कभी देखा? आमने-सामने कभी देखा सौंदर्य को? कभी सौंदर्य से मुलाकात हुई? सौंदर्य से कोई मुलाकात नहीं हुई। सौंदर्य को कभी जाना नहीं, देखा नहीं। सौंदर्य की परिभाषा असंभव है। फिर भी सौंदर्य को हम पहचानते हैं। और जब फूल में उतरता है वह रहस्य, वह रहस्य का लोक जब फूल में समाविष्ट होता है, तो हम कहते हैं फूल सुंदर है। वही रहस्य जब किन्हीं आंखों में समाविष्ट हो जाता है, तो हम कहते हैं आंखें सुंदर हैं। वही रहस्य किसी गीत में प्रकट होता है, तो हम कहते हैं गीत सुंदर है। लेकिन सौंदर्य क्या है? फूल की परिभाषा हो सकती है कि फूल क्या है; चांद की परिभाषा हो सकती है कि चांद क्या है; आंख की परिभाषा हो सकती है कि आंख क्या है। लेकिन सौंदर्य क्या है? वह अपरिभाष्य है, इनडिफाइनेबल है। क्यों? उसकी परिभाषा क्यों नहीं हो पाती? पहचानते हम उसे हैं। किसी अनजान रास्ते से उससे हमारा मिलना भी होता है। किसी अनजान रास्ते से हमारे हृदय के भीतर भी वह प्रविष्ट हो जाता है। किसी अनजान रास्ते से हमारी आत्मा उससे आंदोलित होती है। लेकिन क्या है? जब बुद्धि उसे पकड़ने जाती है, तो हम पाते हैं वह खो गया। करीब-करीब ऐसे है, जैसे कि अंधेरा भरा हो इस कमरे में। और हम प्रकाश लेकर जाएं खोजने कि अंधेरा कहां है, और अंधेरा खो जाए! शायद जहां भी असीम शुरू होता है, वहीं बुद्धि को लेकर जब हम जाते हैं, तो असीम तिरोहित हो जाता है। क्योंकि बुद्धि सीमित को पहचान सकती है। बुद्धि सीमित को ही पहचान सकती है। जहां बुद्धि तय कर सके कि यहां होती है बात शुरू और यहां होती है समाप्त, रेखा खींच सके, एक परिधि बना सके, खंड अलग निर्मित कर सके, तो फिर बुद्धि पहचान पाती है। इसलिए बुद्धि रोज-रोज छोटे से छोटे खंड निर्मित करती है। जितना छोटा खंड हो, बुद्धि की पकड़ उतनी गहरी हो जाती है। इसलिए विज्ञान चीजों को तोड़ता है। क्योंकि विज्ञान बुद्धि की खोज है। और इसलिए विज्ञान परमाणु पर पहुंच गया। परमाणु पर उसकी पकड़ गहरी है। विराट पर बुद्धि की पकड़ नहीं बैठती। जितना छोटा हो, जितना छोटा हो, जितना टुकड़ा हो, बुद्धि उसे ठीक से घेर लेती है। परमाणु को भी तोड़ लिया गया है, अब इलेक्ट्रान पर या न्यूट्रान पर बुद्धि की पकड़ गहरी है। और बुद्धि की कोशिश यह है कि न्यूट्रान से भी नीचे उतरा जा सके, इलेक्ट्रान से भी नीचे उतरा जा सके। जितना छोटा हो खंड, उतना परिभाष्य, डिफाइनेबल हो जाता है। हम उसे रख सकते हैं आंख के सामने। जितना हो विराट, जितना हो असीम, हमारी आंखें ओर-छोर खोजती हैं, कहीं कोई सीमा नहीं मिलती, हम भटक जाते हैं। बुद्धि नाप नहीं पाती और कठिनाई हो जाती है। लाओत्से कहता है, 'न उसके प्रकट होने पर होता प्रकाश, न उसके डूबने पर होता अंधेरा; ऐसा है वह अक्षय और अविच्छिन्न रहस्य, जिसकी परिभाषा संभव नहीं है।' वह सदा है। सूरज उगते रहते हैं और डूबते रहते हैं। फूल खिलते हैं और बिखरते रहते हैं। जीवन पैदा होता है और लीन हो जाता है। सृष्टियां बनती हैं और विसर्जित हो जाती हैं। विश्व निर्मित होता है और प्रलय को उपलब्ध हो जाता है। वह सदा है। कुछ है-हम उसे कोई भी नाम दें-कुछ है, जो पैदा नहीं होता, मरता नहीं; जो सदा है। वह है शुद्ध अस्तित्व, प्योर एक्झिस्टेंस। 186
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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