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________________ अलंकार-शुन्य व्यक्ति ही शासक होने योग्य नहीं, सिर्फ समझें, सिर्फ पहचानें, अपनी एक-एक चाह के पीछे चल कर देख लें। दुख उठाएं, अनुभव करें। और किसी दिन जब यह अनुभव गहरा उतर जाएगा और सब चाहें व्यर्थ हो जाएंगी, उस क्षण नई चाह पैदा नहीं होगी कि मैं अचाह कैसे हो जाऊं। उस दिन कोई चाह न होगी। अचाह चाहों का अभाव है, नई चाह नहीं। मुक्ति नया बंधन नहीं है, समस्त बंधनों का व्यर्थ हो जाना है। चाह है जीवन, अचाह है मुक्ति। और यह हमारे हाथ में है। यह जाग जाना हमारे हाथ में है। यह जब भी कोई चाहे, तब जाग सकता है। मजे की बात है कि चाह तो हमें बहुत दुख देती है। फिर भी हम नहीं चाहते, इसलिए नहीं जागते। चाह बहुत दुख देती है। सब सुख दुख देते हैं। और सभी फूल कांटे की तरह छाती में चुभ जाते हैं और घाव बन जाते हैं। लेकिन हम उनकी तरफ देखते भी नहीं; हम नए फूलों की तलाश में लग जाते हैं उनको भूलने के लिए। एक जगह से दुख मिलता है, तो हम सुख का दूसरा दरवाजा खोलने लगते हैं। एक दरवाजे से नर्क खुलता है, तो हम दूसरा दरवाजा स्वर्ग का खोजने लगते हैं। हम फिक्र ही नहीं करते कि जहां नर्क का दरवाजा खुला, एक क्षण रुकें और सोचें कि कल इस दरवाजे को भी स्वर्ग का समझ कर ही खोला था। यह नर्क हो गया। और भी पहले जो-जो दरवाजे स्वर्ग के समझ कर खोले थे, वे नर्क हो गए। अब मैं फिर नए स्वर्ग के दरवाजे को खोलने चला। अगर यह मुझे दिखाई पड़ जाए। यह मेरे कहने से नहीं दिखाई पड़ सकता आपको। लाओत्से के कहने से आपको दिखाई नहीं पड़ सकता। यह आपके ही जीवन का निरंतर दुख का अनुभव ही गहन हो, तो दिखाई पड़ सकता है। लेकिन हमारे मन की तरकीब यह है कि हम दुख को भूलना चाहते हैं और सुख को याद रखना चाहते हैं। हम दुख को भूलना चाहते हैं। लोग शराब पी रहे हैं, सिनेमागृह में बैठे हुए हैं, संगीत सुन रहे हैं, नाच देख रहे हैं। पूछे, क्या? तो वे कहते हैं कि भुला रहे हैं। कुछ भुला रहे हैं; दुख भुला रहे हैं। दुख भुलाने योग्य नहीं है, दुख ठीक से जानने योग्य है। जो दुख को ठीक से जान लेता है, वह सुख से छूट जाता है। जो दुख को ठीक से जान लेता है, वह चाह से छूट जाता है। जिसकी कोई चाह नहीं, उसका फिर कोई जन्म नहीं है। अस्तित्व होगा उसका-शुद्धतम। वही शुद्धतम अस्तित्व आनंद है। लेकिन भूल मत करना आप। उस आनंद का आपके सुख से कोई भी संबंध नहीं है। उस आनंद में दुख तो खो ही जाते हैं, सुख भी खो जाता है। इसलिए बुद्ध ने तो उस शब्द का प्रयोग करना भी पसंद नहीं किया, आनंद शब्द का। क्योंकि आनंद से सुख का आभास मिलता है। अगर शब्दकोश में जाएंगे खोजने, तो आनंद का कुछ भी अर्थ किया जाए, उसमें सुख रहेगा ही। पारलौकिक सुख होगा, अनंत सुख होगा, शाश्वत सुख होगा, लेकिन सुख होगा ही। तो शब्दकोश ज्यादा से ज्यादा इतना ही भेद कर सकता है कि यह क्षणभंगुर सुख है, वह शाश्वत होगा। लेकिन होगा सुख। बुद्ध ने शब्द ही छोड़ दिया था। बुद्ध कहते थे शांति, आनंद नहीं। वे कहते थे, सब शांत हो जाएगा, सब शांत हो जाएगा। उस शांत क्षण को आप जो भी चाहें कहें। उस शांत क्षण में कोई भविष्य नहीं, कोई यात्रा नहीं है। अस्तित्व के केंद्र-बिंदु से मिलन है। यह हाथ में है। यह हाथ में इसलिए है कि समझ आपके पास है। यह हाथ में इसलिए है कि समझ की धारा को आप चाहें तो अभी दुख पर केंद्रित कर सकते हैं। उसी का नाम ध्यान है। समझ की धारा को दुख पर फोकस करने का नाम ध्यान है। और जो भी व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों पर अपनी समझ की धारा को नियोजित कर लेता है, वह त्याग को उपलब्ध हो जाता है, और उस स्थिति को, जहां फिर कोई पुनरागमन नहीं है। आज का सूत्र : 'इसका क्या अर्थ है कि सम्मान और अपमान, दोनों ही स्वयं के भीतर हैं? हम इस कारण भयभीत होते हैं, क्योंकि हमने अहंकार को ही अपना होना समझ लिया है। जब हम अहंकार को ही अपनी आत्मा नहीं मानते, तो फिर डर क्या?' 157
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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