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ताओ उपनिषद भाग २
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लाओत्से कहता है, इसे नीचे उतारो, इसे हृदय के पास लाओ । हृदय के पास आकर भी वासनाओं में रूपांतरण हो जाता है। और नीचे उतारो, नाभि के पास लाओ। तो वासनाएं शून्य हो जाती हैं और एक नई भूख का अनुभव होता है। उस भूख का नाम ही अध्यात्म है। एक नई भूख का अनुभव होता है। नाभि के पास जैसे ही चेतना आती है, एक नई भूख का अनुभव होता है। तब यह सवाल नहीं होता कि मैं क्या पा लूं, क्या हो जाऊं । तब यह सवाल नहीं होता। तब यही सवाल होता है कि जो मैं हूं, उसे जान लूं। हो जाऊं नहीं; जो मैं हूं, उसे जान लूं। यह एक नई भूख । वस्तुतः जो मेरा सत्य है, वही मेरे सामने प्रकट हो जाए। मुझे कुछ पाना नहीं, मुझे कुछ होना नहीं । मैं जो हूं सदा से, उसे ही जान लूं, उसका ही उदघाटन हो जाए। पर्दा उठ जाए और मैं पहचान लूं कि मैं हूं कौन ! यह है भूख नाभि की। जैसे ही चेतना को कोई नाभि के पास लाता है, वैसे ही उसके जीवन में एक नया प्रश्न खड़ा होता है कि मैं कौन हूं ?
समस्त अध्यात्म इस भूख का उत्तर है। समस्त योग, समस्त साधनाएं, इस भूख का उत्तर हैं। इस प्रश्न को खोज, लेने, इसके उत्तर को पा लेने की विधियां हैं।
पर हमारी और सब तरह की भूख हमें पता है। हमें पता है कि एक बड़ा मकान, उसकी हमें भूख है; एक बड़ी संपदा की राशि, उसकी हमें भूख है; एक यश, उसकी हमें भूख है; प्रतिष्ठा, नाम, उसकी हमें भूख है । सब तरह की भूख हैं। एक भूख का हमें कोई भी पता नहीं — कि मैं कौन हूं, उसे भी जान लूं ! मैं क्या हूं, उसे भी जान लूं !
यह अंतरस्थ नाभि की भूख है । और जिस व्यक्ति में यह भूख पैदा हो जाती है, उसका जीवन एक नई खोज पर निकल जाता है। क्योंकि भूख के बिना खोज नहीं। भूख न हो, तो खोज कोई क्यों करे? जिसकी भूख होती है, उसकी हम खोज करते हैं।
तो लाओत्से कहता है कि संत इस कारण न तो रंग की भूख से भरते, न स्वाद की, न ध्वनि की, न स्पर्श की । इंद्रियों की भूख से अपने को आपूरित नहीं करते। वे अपनी चेतना को हटाते हैं उस भूख की तरफ, जो नाभि के अंतरस्थ केंद्र पर छिपी है— स्वयं को जानने की भूख, स्वयं होने की भूख, स्वयं को पाने की भूख ।
'संत पहली का निषेध और दूसरी का समर्थन करते हैं।'
संत नहीं कहते कि तुम समस्त भूख छोड़ दो। वे कहते हैं, कुछ भूखें हैं, जिनको तुम कितना ही भरो, वे कभी पूरी न होंगी। वे तात्कालिक हैं।
इसे थोड़ा समझ लें। हमारी समस्त इंद्रियों की भूखें तात्कालिक हैं। आज आपने भोजन दिया है पेट को, चौबीस घंटे भर बाद भोजन फिर देना पड़ेगा। क्योंकि भोजन चौबीस घंटे में चुक जाएगा। वह ठीक वैसा ही है जैसे अपनी कार में आपने पेट्रोल डाला है, आप चलाएंगे कार को, वह चुक जाएगा; फिर पेट्रोल डालना पड़ेगा। लेकिन तब आप कार से कोई जद्दोजहद नहीं करते कि तू कैसी कार है, अभी आठ घंटे पहले पेट्रोल दिया था, अब फिर वही बात! तब आप संयम भी नहीं करते कि अब हम बिना ही पेट्रोल डाले कार को चलाएंगे, उपवास पर रखेंगे। आप जानते हैं कि कार की जरूरत है। अगर कार में पेट्रोल नहीं डालना है, तो कृपा करके कार से नीचे उतर जाइए। अगर शरीर को भोजन नहीं देना है, तो कृपा करके शरीर से बाहर हो जाइए, छोड़िए । शरीर की चौबीस घंटे की जरूरतें हैं, वह चौबीस घंटे में पुनरुक्त मांग करेगा।
तो शरीर की जरूरतें तो मांग पैदा करती चली जाएंगी, क्योंकि शरीर तो एक यंत्र है। इसलिए रोज उसको भर दें, वह रोज खाली हो जाएगा। कभी आप शरीर के भरेपन से उस भरेपन को नहीं पा सकेंगे, जो फिर खाली न हो।
लेकिन इसमें कुछ चिंतित होने की बात भी नहीं है। यह ठीक ही है। इसमें परेशान होने की भी जरूरत नहीं है । इसलिए कुछ नासमझ शरीर के दुश्मन हो जाते हैं। वे कहते हैं, शरीर को देने से क्या फायदा, क्योंकि यह तो