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ऐंद्रिक भूनव की नहीं-बाभि-केंद्र की आध्यात्मिक भूख की फिक्र
मरने के लिए भी! अगर अस्सी साल तक कोई बच जाए, तो फिर वह मरने में बड़ी देर लगाता है। फिर वह खाट पर पड़ा रहेगा; सब तरह की बीमारियां उसको पकड़े रहेंगी; चिकित्सक सोचेंगे, आज मरेगा, कल मरेगा, परसों मरेगा; वह है कि चलता ही चला जाता है। असल में, मरने के लिए भी, आखिरी भभक के लिए भी, तेल तो चाहिए ही कि आखिरी भभक हो और दीया बुझ जाए। उतना भी नहीं बचा है। अब वह इतने मिनिमम पर जी रहा है कि मर भी नहीं सकता। इतने न्यूनतम पर जी रहा है।
इसलिए बहुत हैरानी की बात है कि स्वस्थ आदमी अक्सर पहली ही बीमारी में मर जाता है। अगर एक आदमी जिंदगी भर बीमार न पड़ा हो और पहली दफे बीमार पड़े, तो पहली बीमारी मौत बन जाती है। लेकिन जिन्होंने जिंदगी भर बीमारी का रस लिया, उनको मारना इतना आसान नहीं है। उनको मारना बहुत मुश्किल है। क्योंकि वे इतने मिनिमम पर जीने के आदी हो गए हैं कि मौत के लिए भी जितनी शक्ति की जरूरत पड़ेगी, उतनी भी वहां नहीं है। वे जीए चले जाएंगे। टिमटिमाते रहेंगे। न बुझेंगे, न जलेंगे; लेकिन टिमटिमाते रहेंगे।
नींद के लिए भी ऊर्जा तो चाहिए। ये बहुत लोग नहीं भी सो पा रहे हैं आज, उसका भी कारण यही है। इतनी भी ऊर्जा नहीं बचती कि आप रिलैक्स हो सकें, इतना कि शिथिल भी हो सकें। इतनी भी ऊर्जा नहीं बचती। तने के तने ही रह जाते हैं; खिंचे के खिंचे रह जाते हैं।
लाओत्से कहता है और समस्त पूर्वीय योग जानता रहा है कि हम अगर भीतर की इंद्रियों के जगत में प्रवेश करना चाहते हैं, तो बाहर की इंद्रियों को इतना ज्यादा व्यय करना अनुचित है। इसी का नाम संयम है। संयम का और कोई अर्थ नहीं होता। संयम का केवल इतना ही अर्थ है : जितना जरूरी है, उतना बाहर व्यय करना, शेष भीतर की यात्रा के लिए बचाना। जितना जरूरी हो, उतना बाहर देख लेना, बाकी देखने की क्षमता को बचाना। क्योंकि भीतर एक और विराट जगत मौजूद है। और जब यह जगत छिन जाएगा, तब भी वह जगत आपका होगा। और जब यह मकान और ये द्वार और दरवाजे और ये मित्र और प्रियजन, पति और पत्नी और बच्चे और धन, यह सब छिनने लगेगा, तब भी एक संपदा भीतर होगी। लेकिन तब हमारे पास उसे देखने की आंख नहीं होती।
बाहर जो हमने जाना है, वह कुछ भी नहीं है उसके समक्ष जो भीतर है। जो स्वर हमने सुने हैं बाहर, जब हम भीतर की वीणा सुन पाते हैं, तब पता चलता है कि वह सिर्फ शोरगुल था जो हमने बाहर सुना। अगर बाहर भी वीणा के स्वर प्रीतिकर लगते हैं, तो अंतर के रहस्यों को जानने वालों का कहना है कि वे इसीलिए प्रीतिकर लगते हैं कि कुछ न कुछ भीतर के स्वरों की भनक उनमें है, बस इसीलिए। अंतर-संगीत की कुछ भनक उनमें है, इसीलिए। अगर बाहर प्रकाश अच्छा लगता है, तो अंतर-प्रकाश की कुछ झलक उसमें है, इसीलिए। और अगर बाहर के स्वाद अच्छे लगते हैं, तो थोड़ी सी मिठास का एक कण उसमें है, उस मिठास का कण जो भीतर भरी है अनंत, इसीलिए। अगर बाहर का संभोग भी अच्छा लगता है, तो सिर्फ इसीलिए कि अंतर-संभोग की एक किरण, एक झलक, एक प्रतिफलन, एक ईको, एक प्रतिध्वनि उसमें मौजूद है, बस इसीलिए। लेकिन उस पर अपने को चुका मत डालना; उस अनुभव पर अपने को समाप्त मत कर देना। अभी भीतर बड़े अनुभवों के द्वार खुल सकते हैं।
तो लाओत्से कहता है, 'घुड़दौड़ और शिकार मन को पागल कर जाते हैं। दुर्लभ और विचित्र पदार्थों की खोज आचरण को भ्रष्ट कर देती है।'
घुड़दौड़ या शिकार, या हम नए पागलपन जोड़ सकते हैं, ये लाओत्से के जमाने के पागलपन हैं। अब तो बहुत पागलपन हैं। उस वक्त उसे दो बातें पागलपन की दिखाई पड़ी होंगी : घुड़दौड़ पर लोग दांव लगा रहे हैं, शिकार पर लोग जा रहे हैं। आज तो बहुत हैं। आज तो करीब-करीब जो भी हम कर रहे हैं, वह सभी घुड़दौड़ है और सभी शिकार है। पागल कर जाते हैं मन को।
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