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समय की चेतना बढ़ती है पुरुष-चित्त के साथ; स्त्रियों को समय की कोई धारणा नहीं है। इसलिए रोज आप हर घर के सामने झगड़ा देखते हैं। वह झगड़ा स्त्रैण और पुरुष चित्त का है। पुरुष बजा रहा है हॉर्न दरवाजे पर खड़ा हुआ और पत्नी अपनी सजावट किए चली जा रही है। गाड़ी चूक गए हैं, या फिल्म में पहुंचे देर से हैं, हॉल बंद हो गया! और वह पति चिल्ला रहा है कि इतनी देर लगाने की क्या जरूरत थी? असल में, स्त्री को टाइम कांशसनेस नहीं है। उसमें कसूर नहीं है। यह कोई फर्क ही नहीं पड़ता। आधा घंटे, घंटे से क्या फर्क पड़ता है? ऐसा क्यों परेशान हो रहे हो? काहे के लिए हॉर्न बजाए जा रहे हो?
मैंने सुना है, एक स्त्री की सड़क पर कार रुक गई है और वह उसे स्टार्ट नहीं कर पा रही है। पीछे का आदमी आकर हॉर्न बजा रहा है। तो वह स्त्री बाहर निकली, उसने उस आदमी से जाकर कहा, महानुभाव, गाड़ी मेरी स्टार्ट नहीं होती; आप जरा स्टार्ट करिए; हॉर्न बजाने का काम मैं किए देती हूं।
जल्दबाजी नहीं है; व्यक्तित्व में नहीं है।
लाओत्से कहता है, स्त्रैण-चित्त का यह जो रहस्य है-यह गैर-जल्दबाजी, अधैर्य बिलकुल नहीं, समय का बिलकुल बोध नहीं-ये सत्य की दिशा में बड़े सहयोगी कदम हैं। ध्यान इतना ही रखना कि जब भी मैं स्त्रैण-चित्त की बात कर रहा है, तो स्त्रैण-चित्त की बात कर रहा हूं, स्त्री की नहीं। स्त्रैण-चित्त पुरुष के पास हो सकता है। जैसे बुद्ध जैसे आदमी के पास स्त्रैण-चित्त है; समय का कोई बोध नहीं है।
बुद्ध जब मरे, चालीस साल हो चुके थे उन्हें ज्ञान उपलब्ध हुए। किसी ने उनसे मरने के दिन कहा है कि अपरंपार थी तुम्हारी कृपा, अनुकंपा तुम्हारी अपार थी! तुम्हें जीने की कोई भी जरूरत न थी ज्ञान हो जाने के बाद। तुम दीए की तरह बुझ जा सकते थे अनंत में, निर्वाण को उपलब्ध हो सकते थे। हम पर कृपा करके तुम चालीस साल जीए! बुद्ध ने कहा, चालीस साल? आनंद, पास में बैठे भिक्षु से कहा, क्या इतना समय व्यतीत हो गया? समय का कोई बोध नहीं है। चालीस साल? बुद्ध ने कहा, क्या इतना समय व्यतीत हो गया मुझे ज्ञान उपलब्ध हए? कोई हिसाब नहीं है।
स्पेस में जीती है स्त्री। उसका चित्त जो है, वह स्थान में जीता है। स्थान अभी और यहीं फैला हुआ है। समय भविष्य और अतीत में फैला हुआ है। स्थान वर्तमान में फैला हुआ है, अभी और यहीं! इसलिए स्थान का स्त्री को बहुत बोध है। और स्त्री ने जो कुछ भी थोड़ा-बहुत काम किया है, वह सब स्थान में है। चाहे वह घर बनाए, चाहे फर्नीचर सजाए, चाहे कमरे की सजावट करे, चाहे शरीर पर कपड़ा डाले, चाहे गहने पहने-यह सब स्पेसियल है, यह सब स्थान में है। इनका रूप-आकार स्थान में है। समय में इनकी कोई स्थिति नहीं है।
पुरुष इन बातों में बहुत रस नहीं ले पाता। ये उसे ट्रिवियल, क्षुद्र बातें मालूम पड़ती हैं। उसका रस समय में है। वह सोचता है, कम्युनिज्म कैसे आए! अब माक्र्स सौ साल पहले बैठ कर ब्रिटिश म्यूजियम की लाइब्रेरी में अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है-इस खयाल में कि कभी कम्युनिज्म कैसे आए! माक्र्स उसे देखने को नहीं बचेगा। कोई कारण नहीं है उसके बचने का। लेकिन वह योजना बनाता है कि कम्युनिज्म कैसे आए! कोई और लाएगा, कोई और देखेगा; आएगा, नहीं आएगा; इससे मतलब नहीं है। लेकिन माक्र्स इतनी मेहनत करता है, कोई स्त्री नहीं कर सकती।
माक्र्स ब्रिटिश म्यूजियम से तब हटता था, जब बेहोश हो जाता था पढ़ते-पढ़ते और लिखते-लिखते। अक्सर उसे बेहोश घर ले जाया गया है। और उसकी पत्नी हैरान होती थी कि तुम पागल हो! तुम कर क्या रहे हो? इसे लिख कर होगा क्या? उसकी किताब भी कोई छापने को तैयार नहीं था। स्त्री सोच ही नहीं सकती थी, इससे फायदा क्या है! यह किताब बिक भी नहीं सकती। उलटे मंहगा पड़ रहा था। माक्र्स ने कैपिटल लिखी, तो जितने में उसकी किताब बिकी, उससे ज्यादा की तो वह सिगरेट पी चुका था उसे लिखने में। तो मंहगा पड़ रहा था। और बेहोश घर उठा कर लाया जाता। लाइब्रेरी से धक्के देकर निकाला जाता; क्योंकि लाइब्रेरी बंद हो गई और वह हटता ही नहीं है, वह अपनी कुर्सी पकड़े हुए बैठा है। चपरासी कह रहे हैं, हटिए! और वह कह रहा है, थोड़ा और लिख लेने दो।
यह किसलिए? यह भविष्य की कोई कल्पना है कि कहीं किसी दिन साम्यवाद आएगा! इसमें कोई स्पेसियल बोध नहीं है, स्थान का कोई बोध नहीं है। कोई स्त्री यह नहीं कर सकती। अभी और यहीं! यहीं कुछ हो सकता हो, तो! उसके अंतर में ही समय की प्रतीति नहीं है।लाओत्से मानता है कि समय की प्रतीति खो जाए, तो आप स्त्रैण-चित्त के हो जाएंगे।
इसलिए दुनिया के समस्त साधकों ने यह कहा है कि जब समय मिट जाएगा, तभी ध्यान उपलब्ध होगा। व्हेन देयर इज़ नो टाइम। जीसस से किसी ने पूछा है कि तुम्हारे स्वर्ग में खास बात क्या होगी? तो उन्होंने कहा, देयर शैल बी टाइम नो लांगर। खास बात जीसस ने बताई कि वहां समय नहीं होगा। समय होगा ही नहीं। और सब कुछ होगा, समय नहीं होगा। क्योंकि समय के साथ ही चिंताएं आती हैं। समय के साथ ही दौड़ आती है। समय के साथ ही वासना आती है। समय के साथ ही इच्छा का जन्म होता है। समय के साथ ही फल की आकांक्षा पैदा होती है। समय के साथ ही यहां नहीं, कहीं और हमारे सुख का साम्राज्य निर्मित हो जाता है।इसलिए स्त्रैण-चित्त के ये गण भी खयाल में रखेंगे, तो अगले सत्र को कल समझना हमें आसान हो सकेगा।आज इतना ही। कीर्तन में पांच मिनट सम्मिलित हों। जो लोग वहां कीर्तन में सम्मिलित होना चाहें, भयभीत न हों। पास-पड़ोस के लोगों को भूल जाएं और कीर्तन में डूबें।
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज