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हमें लाओत्से के आधार पर नए विज्ञान की इमारत खड़ी करनी चाहिए। क्यों? क्योंकि यह हारने और जीतने की भाषा हिंसा की भाषा है। और प्रकृति को जीता नहीं जा सकता। और प्रकृति को जीतने की कोशिश वैसा ही पागलपन है, जैसा मेरे हाथ की एक अंगुली मेरे पूरे शरीर को जीतने की कोशिश करे। वह कभी जीत नहीं पाएगी। हां, लड़ने में और परेशान होगी। जीत तो कभी नहीं सकती है। और आदमी बहुत परेशान हो गया है। और जब आदमी प्रकृति से जीतने की भाषा में सोचता है, तो आदमी और आदमी भी लड़ने की भाषा में सोचते हैं, लड़ना उनके चिंतन का ढंग हो जाता है।
लाओत्से के हिसाब से जब तक दुनिया में स्त्रैण-चित्त प्रभावी नहीं होता, तब तक दुनिया से युद्ध समाप्त नहीं किए जा सकते हैं। और यह बात थोड़ी सच मालूम पड़ती है। स्त्रियां युद्ध में बिलकुल भी उत्सुक नहीं हैं। कभी नहीं रहीं। अगर पुरुष ने उन्हें समझा-बुझा कर भी युद्ध पर जाते वक्त टीका लगवाने को राजी कर लिया, तो उनकी जो मुस्कुराहट थी टीका लगाते वक्त, वह झूठी थी। और उनकी मुस्कुराहट के पीछे सिवाय आंसुओं के और कुछ भी नहीं था। और पुरुष को विदा करके सिवाय स्त्रियों ने रोने के और कुछ भी नहीं किया है। क्योंकि युद्ध में कोई भी हारे और कोई भी जीते, स्त्री तो अनिवार्य रूप से हारती ही है। युद्ध में कोई भी जीते, कोई भी हारे, स्त्री तो हारती ही है। युद्ध में कोई भी मरे और कोई भी बचे, स्त्री तो हारती ही है। या उसका बेटा मरता है, या उसका पति मरता है, या उसका प्रेमी मरता है, कोई न कोई उसका मरता है-इधर या उधर, कहीं भी स्त्री अनिवार्य रूप से हारती है। युद्ध पुरुष को भला कितनी ही उत्तेजना ले आता हो, लेकिन स्त्री को जीवन में घातक संघात पहुंचा जाता है। स्त्रियां सदा युद्ध के विपरीत रही हैं। लेकिन स्त्रियों का कोई प्रभाव नहीं है; स्त्रैण-चित्त का कोई प्रभाव नहीं है। और जब तक पुरुष-चित्त प्रभावी है, दुनिया से युद्ध नहीं मिटाए जा सकते। पुरुष के सोचने का ढंग ऐसा है कि अगर उसे युद्ध के खिलाफ भी आंदोलन चलाना हो, तो भी उसका ढंग युद्ध का ही होता है। अगर वह शांति का आंदोलन भी चलाता है, तो भी उसकी मुठियां भिंची होती हैं और डंडे उसके हाथ में होते हैं। वे कहते हैं, शांति लेकर रहेंगे! शांति स्थापित करके रहेंगे! लेकिन उसका जो ढंग है, वह शांति स्थापित करने भी जाए, जुझारू ही बना रहता है।
मुल्ला नसरुद्दीन पर एक और मुकदमा है। दो व्यक्तियों में झगड़ा हो गया और उन दोनों ने एक-दूसरे के सिर तोड़ दिए हैं कुर्सियों से। नसरुद्दीन वहां मौजूद था। उसे गवाह की तरह अदालत में बुलाया गया। और मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा कि नसरुद्दीन, तुम खड़े देखते रहे, तुम्हें शर्म नहीं आई! ये तुम्हारे दोनों मित्र हैं, तुमने बचाव क्यों न किया? नसरुद्दीन ने कहा, तीसरी कुर्सी ही वहां नहीं थी। दो कुर्सियां थीं, इन दोनों ने ले लीं। अगर तीसरी कुर्सी होती, तो बचाव करके दिखा देता। लेकिन कोई उपाय ही नहीं था। मुझे खड़े रहना पड़ा।
वह जिसको बचाव करना है बीच में, उसके हाथ में भी बंदूक तो चाहिए ही। आदमी बिना बंदूक के सोच नहीं सकता। आप चकित होंगे जान कर, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी ने जो भी अस्त्र-शस्त्र विकसित किए हैं, वे बहुत कुछ उसकी जननेंद्रियों का विकास हैं। चाहे बंदूक हो, चाहे तलवार हो, चाहे छुरी हो; वह दूसरे में भोंक देने का उपाय है। वह सब फैलिक है, वह लैंगिक है-मनुष्य के सारे शस्त्र।
स्त्रियों ने कोई शस्त्र विकसित नहीं किए हैं। लड़ने का खयाल ही स्त्री के लिए बेमानी है। युद्ध अर्थहीन है। जीतने की बात ही प्रयोजन की नहीं है। स्त्रैण-चित्त असल में जीतने की भाषा में नहीं सोचता, समर्पण की भाषा में सोचता है। इसे ठीक से समझ लें। स्त्री के चित्त का जो केंद्र है, वह समर्पण, सरेंडर है। पुरुष के चित्त का जो केंद्र है, वह संकल्प, संघर्ष, विजय, इस तरह की बातें है। अगर पुरुष ईश्वर को भी पाने जाता है, तो वह ऐसे ही जाता है जैसे आक्रमण कर रहा है। ईश्वर को पाकर रहेगा! उसका जो ढंग होता है। वह सत्य को खोजने भी निकलता है, तो ऐसे ही जैसे दुश्मन को खोजने निकला है। खोज कर ही रहेगा! वह प्रार्थना नहीं है मन में वहां, वहां कब्जे का सवाल है।
आगे जब हम लाओत्से को समझेंगे, तब हमारे खयाल में आएगा कि वह कहता है, जो समर्पण कर सकता है, छोड़ सकता है, सरेंडर कर सकता है, वही विराट सत्य को पाने के लिए अपने भीतर जगह बना सकता है। तर्क पुरुष का लक्षण है, संघर्ष उसका लक्षण है। समर्पण और तर्कहीन आस्था, या कहें श्रद्धा, स्त्रैण-चित्त का लक्षण है। वह जो अंतर्दृष्टि है, इंटयूशन है, वह श्रद्धा के बीच पैदा होती है; भरोसे के, ट्रस्ट के बीच पैदा होती है। अगर पुरुष को श्रद्धा भी करनी पड़े, तो वह करनी पड़ती है, वह उसके लिए सहज नहीं है। वह कहता है कि अच्छा, बिना श्रद्धा के नहीं हो सकेगा, तो मैं श्रद्धा किए लेता हूं। लेकिन की गई श्रद्धा का कोई मूल्य नहीं है। और जब कोई श्रद्धा करता है, तो भीतर संदेह बना ही रहता है। की गई श्रद्धा का अर्थ ही यह होता है कि संदेह भीतर मौजूद है। गहरे में संदेह होगा, ऊपर श्रद्धा होगी।
नसरुद्दीन अपने बेटे को जीवन की शिक्षा दे रहा है। वह उससे कहता है कि इस ऊपर की सीढ़ी पर चढ़ जा! वह बेटा पूछता है, कारण? क्या जरूरत है? नसरुद्दीन कहता है, ज्यादा बातचीत नहीं, श्रद्धापूर्वक ऊपर चढ़! वह लड़का बेचैनी से ऊपर चढ़ता है। ऊपर जब वह पहुंच जाता है सीढ़ी पर, तो नसरुद्दीन कहता है, ये मेरी बांहें फैली हैं, तू कूद जा! वह कहता है, लेकिन मतलब, जरूरत? नसरुद्दीन कहता है, श्रद्धा रख, घबड़ा मत! मैं तेरा बाप हूं, हाथ फैलाए खड़ा हूं! कूद जा! लड़का कूद जाता है। नसरुद्दीन जगह छोड़ कर खड़ा हो जाता है। लड़का जमीन पर गिरता है; दोनों पैरों में चोट लगती है। वह रोता है। नसरुद्दीन कहता है, देख, जिंदगी के लिए तुझे एक शिक्षा देता हूं: किसी का भरोसा मत करना। अपने बाप का भी मत करना। अगर जिंदगी में जीतना है, भरोसा मत करना। भरोसा किया कि हारा।
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