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नसरुद्दीन अपने बेटे को कह रहा था कि तू यूनिवर्सिटी जा रहा है, तो तर्कशास्त्र जरूर पढ़ लेना। पर उसके बेटे ने कहा कि जरूरत क्या है तर्कशास्त्र को पढ़ने की? तर्कशास्त्र सिखा क्या सकता है? नसरुद्दीन ने कहा, तर्कशास्त्र में बड़ी खूबियां हैं; वह तुझे आत्यंतिक रूप से बेईमान बना सकता है। और अगर बेईमान होना हो, तो तर्क जानना बिलकुल जरूरी है। ईमानदारी बिना तर्क के हो सकती है; बेईमानी बिना तर्क के नहीं हो सकती है।
उसके बेटे ने कहा, मुझे कुछ समझाएं; क्योंकि मुझे तर्क का कुछ भी पता नहीं। तो नसरुद्दीन ने कहा कि समझ, एक मकान में किचेन की चिमनी से दो आदमी बाहर निकलते हैं। एक आदमी के कपड़े बिलकुल शुभ्र, सफेद हैं। उन पर जरा भी दाग नहीं लगा है।
और दूसरा आदमी बिलकुल गंदा हो गया है, काला पड़ गया है। सारे कपड़े और चेहरे पर चिमनी की कालिख लग गई है। मैं तुझसे पूछता हूं कि उन दोनों में से कौन स्नान करेगा?
स्वभावतः, उसके बेटे ने कहा कि जो गंदा और काला हो गया, वह स्नान करेगा। नसरुद्दीन ने कहा, गलत। यही तो तर्क जानने की जरूरत है। क्योंकि जो आदमी गंदा है, उसे अपनी गंदगी नहीं दिखाई पड़ेगी, उसे दूसरे आदमी के सफेद कपड़े पहले दिखाई पड़ेंगे। और जब वह सोचेगा कि दूसरे आदमी के सफेद कपड़े हैं, तो मेरे भी सफेद होंगे। लड़के ने कहा, मैं समझा आपकी बात, मैं समझ गया। जिस आदमी के सफेद कपड़े हैं, वह स्नान पहले करेगा। क्योंकि वह गंदे आदमी को देखेगा; वह सोचेगा, जब यह इतना गंदा हो गया, तो मैं कितना गंदा नहीं हो गया होऊंगा। एक ही चिमनी से दोनों निकले हैं। मैं समझ गया। नसरुद्दीन के बेटे ने कहा, मैं समझ गया, पिताजी, आपकी बात! पहले वह आदमी स्नान करेगा, जो बिलकुल सफेद कपड़े पहने हुए है। नसरुद्दीन ने कहा, गलत! उसके बेटे ने कहा, हद हो गई, दोनों बातें गलत! नसरुद्दीन ने कहा, गलत! क्योंकि जो तर्क जानता है, वह यह कहेगा कि जब एक ही चिमनी से दोनों निकले, तो एक सफेद और एक गंदा कैसे निकल सकता है? नसरुद्दीन ने कहा कि अगर दुनिया में सबको गलत सिद्ध करना हो, तो तर्क जानना जरूरी है।
हां, तर्क से, क्या सही है, यह कभी सिद्ध नहीं होता; लेकिन क्या गलत है, यह सिद्ध किया जा सकता है। तर्क से, क्या गलत है, यह सिद्ध किया जा सकता है; लेकिन तर्क से यह कभी पता नहीं चलता कि क्या सही है। सही का अनुभव करना पड़ता है। और जब सही का तर्क से पता ही नहीं चलता, तो तर्क से जिसे हम गलत सिद्ध करते हैं, वह भी पूरी तरह गलत सिद्ध हो नहीं सकता है। क्योंकि जब हमें सही का पता ही नहीं है, तो वह सिर्फ सिद्ध करने का खेल है।
पश्चिम में जो विज्ञान विकसित हुआ है, वह लॉजिक, तर्क से विकसित हुआ है। अरस्तू उसका पिता है। और जहां तर्क होता है, वहां काट-पीट होती है। क्योंकि तर्क टुकड़ों में तोड़ता है। तर्क की विधि एनालिसिस है, तोड़ो-काटो। इसीलिए विज्ञान की विधि एनालिसिस है, एनालिटिकल है, विश्लेषण करो। इसलिए वे अणु पर पहुंच गए तोड़तेत्तोड़ते, आखिरी टुकड़े पर पहुंच गए।
स्त्रैण-चित्त सिंथेटिकल है। वह तोड़ता नहीं, जोड़ता है। वह कहता है, जोड़ते जाओ! और जब जोड़ने को कुछ न बचे तो जो हाथ में आए, वही सत्य है। इसलिए स्त्रैण-चित्त ने जो निर्णय लिए हैं, वे विराट के हैं, अणु के नहीं। उसने कहा, सारा जगत एक ही ब्रह्म है। वैज्ञानिक कहता है, सारा जगत अणुओं का एक ढेर है; और प्रत्येक अणु अलग है, दूसरे अणु से उसका कोई जोड़ नहीं है। जुड़ भी नहीं सकता, चाहे तो भी नहीं जुड़ सकता। दो अणुओं के बीच गहरी खाई है, कोई अणु जुड़ नहीं सकता। सारा जगत, जैसे रेत के टुकड़ों का ढेर लगा हो, ऐसा सारा जगत अणुओं का ढेर है।
जगत अणुओं का ढेर है? या विज्ञान की पद्धति ऐसी है कि अणुओं का ढेर मालूम पड़ता है?
स्त्रैण-चित, अनुभूति से चलने वाला व्यक्ति कहता है, जगत में दो ही नहीं हैं। अनेक की तो बात ही अलग; दो भी नहीं हैं, द्वैत भी नहीं है। जगत एक ही विराट है। वह जोड़ कर सोचता है। जोड़ता चला जाता है। जब जोड़ने को कुछ नहीं बचता, और सारा जगत जुड़ जाता है।
स्त्री जोड़ने की भाषा में सोचती है। पुरुष तोड़ने की भाषा में सोचता है-यह पुरुष-चित्त! स्त्री-चित्त जोड़ने की भाषा में सोचता है। और जहां जोड़ना है, वहां नतीजे दूसरे होंगे। और जहां तोड़ना है, वहां नतीजे दूसरे होंगे। ध्यान रहे, जहां तोड़ना है, वहां आक्रमण होगा। इसलिए पश्चिम के वैज्ञानिक कहते हैं, वी आर कांकरिंग नेचर, हम प्रकृति को जीत रहे हैं। लेकिन पूरब में लाओत्से जैसे लोग कभी नहीं कहते कि हम प्रकृति को जीत रहे हैं। क्योंकि वे कहते हैं, हम प्रकृति के बेटे, हम प्रकृति को जीत कैसे सकेंगे? यह तो मां के ऊपर बलात्कार है!
लाओत्से कहता है, प्रकृति को हम जीत कैसे सकेंगे? यह तो पागलपन है। हम केवल प्रकृति के साथ सहयोगी हो जाएं, हम केवल प्रकृति के कृपापात्र हो जाएं, हमें केवल प्रकृति की ग्रेस और प्रसाद मिल सके, तो पर्याप्त है। प्रकृति का वरदान हमारे ऊपर हो तो काफी है।
इसलिए लाओत्से ने जो बात कही है, उस पर अभी पश्चिम में फिर से पुनर्विचार शुरू हुआ है। पश्चिम में अभी एक अदभुत किताब लिखी गई है, वह पहली किताब है इस तरह की, दि ताओ ऑफ साइंस। और अभी पश्चिम के कुछ वैज्ञानिकों ने यह खबर दी है, जोर से चर्चा चलाई है कि पश्चिम का जो अरिस्टोटेलियन विज्ञान है, अरस्तू के आधार पर बना जो विज्ञान है, उसे हटा देना चाहिए; और
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