________________
Download More Osho Books in Hindi
Download Hindi PDF Books For Free
हटा दिया। सिर्फ एक मूर्ति पर बुद्ध की दाढ़ी है, इसलिए लोग उस मूर्ति को कहते हैं वह झूठ है, वह ठीक नहीं है। क्योंकि किसी मूर्ति पर दाढ़ी नहीं है। महावीर की एक मूर्ति पर मूंछ है, तो लोग कहते हैं कि वह कुछ किसी जादूगर ने उन पर मूंछ उगा दी है। तो उस पूरे मंदिर का नाम मुछाला महावीर है, मूंछ वाले महावीर। क्योंकि महावीर तो मूंछ वाले थे नहीं।
लेकिन महावीर में मूंछ न हो, बद्ध में मूंछ न हो, कभी एकाध दफा ऐसी घटना घट सकती है; क्योंकि कुछ पुरुष होते हैं, जिनमें हारमोन्स की कमी की वजह से दाढ़ी-मूंछ नहीं होती। लेकिन जैनों के चौबीस तीर्थंकर और किसी को दाढ़ी न हो, जरा कठिन है! इतना बड़ा संयोग मुश्किल है।
लेकिन वह प्रतीकात्मक है। वह इस बात की खबर है कि हमने यह स्वीकार कर लिया था कि यह व्यक्ति अब स्त्रैण रहस्य में प्रवेश कर गया, दि फेमिनिन मिस्ट्री में।
ध्यान रहे, जब मैं स्त्रैण रहस्य कह रहा है, तो कोई ऐसा न समझे कि मेरा मतलब स्त्री से ही है। स्त्री भी, हो सकती है, स्त्रैण रहस्य में प्रवेश न करे; और पुरुष भी प्रवेश कर सकता है। स्त्रैण रहस्य तो जीवन का एक सूत्र है।।
लाओत्से इसलिए कहता है कि दि फीमेल मिस्ट्री दस डू वी नेम। हम इस तरह नाम देते हैं। नाम देने का कारण है। क्योंकि यह नाम अर्थपूर्ण मालूम पड़ता है। हम उस रहस्य को पुरुष जैसा नाम नहीं दे सकते; क्योंकि वह रहस्य परम शांत है। वह इतना शांत है कि उसकी उपस्थिति की भी खबर नहीं मिलती। क्योंकि उपस्थिति की भी खबर तभी मिलती है, जब कोई खबर दे।
इसलिए सच्ची प्रेयसी वह नहीं है जो अपने प्रेमी को अपने होने की खबर चौबीस घंटे करवाती रहती है। करवाते रहते हैं लोग। अगर पति घर आया है, तो पत्नी हजार उपाय करती है। बर्तन जोर से छूटने लगते हैं हाथ से। खबर करवाती है कि मैं हूं, इसे स्मरण रखना; मैं यहीं आस-पास हूं। पति भी पूरे उपाय करता है कि तुम नहीं हो। अखबार फैला कर, जिसे वह दस बार पढ़ चुका है, फिर पढ़ने लगता है। वह अखबार दीवार है, जिसके पार बजाओ कितने ही बर्तन, कितनी ही करो आवाज, बच्चों को पीटो, शोरगुल मचाओ, रेडियो जोर से बजाओ, नहीं सुनेंगे। हम अखबार पढ़ते हैं!
लेकिन प्रेयसी सच में वही है, जिस स्त्री को स्त्रैण रहस्य का पता चल गया। वह अपने प्रेमी के पास अपनी उपस्थिति को पता भी नहीं चलने देगी।
एक बहुत अदभुत घटना मैं आपसे कहता हूं। वाचस्पति मिश्र का विवाह हुआ। पिता ने आग्रह किया, वाचस्पति की कुछ समझ में न आया; इसलिए उन्होंने हां भर दी। सोचा, पिता जो कहते होंगे, ठीक ही कहते होंगे। वाचस्पति लगा था परमात्मा की खोज में। उसे कुछ और समझ में ही न आता था। कोई कुछ भी बोले, वह परमात्मा की ही बात समझता था। पिता ने वाचस्पति को पूछा, विवाह करोगे? उसने कहा, हां।
उसने शायद सुना होगा, परमात्मा से मिलोगे? जैसा कि हम सब के साथ होता है। जो धन की खोज में लगा है, उससे कहो, धर्म खोजोगे? वह समझता है, शायद कह रहे हैं, धन खोजोगे? उसने कहा, हां। हमारी जो भीतर खोज होती है, वही हम सुन पाते हैं। वाचस्पति ने शायद सना; हां भर दी।
फिर जब घोड़े पर बैठ कर ले जाया जाने लगा, तब उसने पूछा, कहां ले जा रहे हैं? उसके पिता ने कहा, पागल, तूने हां भरा था। विवाह करने चल रहे हैं। तो फिर उसने न करना उचित न समझा; क्योंकि जब हां भर दी थी और बिना जाने भर दी थी, तो परमात्मा की मर्जी होगी।
वह विवाह करके लौट आया। लेकिन पत्नी घर में आ गई, और वाचस्पति को खयाल ही न रहा। रहता भी क्या! न उसने विवाह किया था, न हां भरी थी। वह अपने काम में ही लगा रहा। वह ब्रह्मसूत्र पर एक टीका लिखता था। वह बारह वर्ष में टीका पूरी हुई। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी रोज सांझ दीया जला जाती, रोज सुबह उसके पैरों के पास फूल रख जाती, दोपहर उसकी थाली सरका देती। जब वह भोजन कर लेता, तो चुपचाप पीछे से थाली हटा ले जाती। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी का वाचस्पति को पता नहीं चला कि वह है। पत्नी ने कोई उपाय नहीं किया कि पता चल जाए; बल्कि सब उपाय किए कि कहीं भूल-चूक से पता न चल जाए, क्योंकि उनके काम में बाधा न पड़े।
बारह वर्ष जिस पूर्णिमा की रात वाचस्पति का काम आधी रात पूरा हुआ और वाचस्पति उठने लगे, तो उनकी पत्नी ने दीया उठायाउनको राह दिखाने के लिए उनके बिस्तर तक। पहली दफा बारह वर्ष में, कथा कहती है, वाचस्पति ने अपनी पत्नी का हाथ देखा। क्योंकि बारह वर्ष में पहली दफा काम समाप्त हुआ था। अब मन बंधा नहीं था किसी काम से। हाथ देखा, चूड़ियां देखीं, चूड़ियों की आवाज सुनी। लौट कर पीछे देखा और कहा, स्त्री, इस आधी रात अकेले में तू कौन है? कहां से आई? द्वार मकान के बंद हैं, कहां पहुंचना है तुझे, मैं पहुंचा दूं!
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज