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कवि नहीं हो सकता। और अगर आप कविता को सिखा दें और ट्रेनिंग दे दें और सर्टिफिकेट दे दें कि यह आदमी ट्रेंड है कविता में, तो वह सिर्फ तुकबंदी करेगा। कविता उससे पैदा नहीं हो सकती । पुरोहित भी जन्मजात क्षमता है, साधना का फल है। उसे कोई प्रशिक्षित नहीं कर सकता। लेकिन ईसाइयत ने प्रशिक्षित किए। ट्रेंड पुरोहित हैं, उनके पास डिग्रियां हैं, उनमें कोई डी. डी. है, डाक्टर ऑफ डिविनिटी है। डाक्टर ऑफ डिविनिटी कोई नहीं होता, क्योंकि सर्टिफिकेट पर जो डिविनिटी तय हो जाएगी, वह डिविनिटी नहीं हो सकती है। वह क्या दिव्यता होगी जो एक स्कूल सर्टिफिकेट देने से तय हो जाती हो!
तो पुरोहित के पास जब स्त्रियां अपने पापों का कन्फेशन करती हैं, तो यह कन्फेशन बहुत टेंपटिंग हो जाता है। स्वाभाविक ! जब कोई स्त्री अपने पाप का स्वीकार करती है, और एकांत में करती है, तो पुरोहित के लिए बड़ी बेचैनी हो जाती है। स्त्री तो हलकी हो जाती है, पुरोहित भारी हो जाता है। लेकिन कैथोलिक पुरोहितों का एक वक्तव्य मुझे सदा हैरान करता था, वह यह कि विधवा स्त्रियां ज्यादा आकर्षक और टेंपटिंग सिद्ध होती हैं। मैं बहुत हैरान था कि यह क्या कारण होगा?
असल में, विधवा अगर सच में विधवा हो, तो उसके सौंदर्य में बहुत बढ़ती हो जाती है। क्योंकि प्रतीक्षा उसके स्त्रैण रहस्य को गहन कर देती है। कुंवारी लड़की में जो रहस्य होता है, वह प्रतीक्षा का है। इसलिए सारी दुनिया में जो समझदार कौमें थीं, उन्होंने तय किया कि कुंवारी लड़की से ही विवाह करना। क्योंकि सच तो यह है कि जो लड़की कुंवारी नहीं है, उससे विवाह करने का मतलब है आपको स्त्री के रहस्य को जानने का मौका ही नहीं मिलेगा। वह रहस्य पहले ही खंडित हो चुका। वह स्त्री छिछली हो गई। उसने प्रतीक्षा ही नहीं की है इतनी, जितनी प्रतीक्षा पर वह भीतर का पूरा का पूरा रहस्यमय फूल खिलता है।
इसलिए जिन समाजों ने स्त्री के कुंवारे रहने पर और विवाह पर जोर दिया, उन्होंने पुरुष के कुंवारेपन की बहुत फिक्र नहीं की है। उसका कारण है कि पुरुष के कुंवारेपन या न कुंवारेपन से कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन स्त्री के कुंवारेपन से फर्क पड़ता है। कुंवारी स्त्री में एक सौंदर्य है जो विवाह के बाद उसमें खो जाता है।
वह सौंदर्य उसमें फिर से जन्मता है, जब वह मां बनना शुरू होती है। क्योंकि अब वह एक और बड़े रहस्य के द्वार पर, और एक और बड़ी प्रतीक्षा के द्वार पर खड़ी हो जाती है। उसे गर्भवती देख कर पति चिंतित हो सकता है। और पति चिंतित होते हैं। और उनकी चिंता स्वाभाविक है। क्योंकि उनके लिए प्रतीक्षा नहीं, केवल एक और इकोनॉमिक, एक आर्थिक उपद्रव उनके ऊपर आने को है। लेकिन मां मधुर हो जाती है। असल में, मां का गर्भ जैसे बढ़ने लगता है, उसकी आंखों की गहराई बढ़ने लगती है; उसके शरीर में नए कोमल तत्वों का आविर्भाव होता है। गर्भिणी स्त्री का सौंदर्य स्त्रैण रहस्य से बहुत भारी हो जाता है। यह क्या होगा रहस्य ?
यह पैसिविटी इज़ दि सीक्रेट । अब मां बनने के लिए कुछ उसे करना तो पड़ता नहीं। बेटा उसके पेट में बड़ा होने लगता है; उसे सिर्फ प्रतीक्षा करनी होती है। उसे कुछ भी नहीं करना होता । असल में, उसे सब करना छोड़ देना होता है; सिर्फ प्रतीक्षा ही करनी होती है। जैसे-जैसे उसके बेटे का या उसकी बेटी का, उसके गर्भ का विकास होने लगता है, वैसे-वैसे सब काम उसे छोड़ देना पड़ता है। वह सिर्फ प्रतीक्षा में रह जाती है, वह सिर्फ स्वप्न देखने लगती है। इसलिए अगर सारा काम स्त्री छोड़ दे बच्चे के जन्म के करीब, तो वह वे स्वप्न देख सकती है, जो उसके बच्चे के भविष्य की सूचनाएं होंगे। इसलिए महावीर या बुद्ध की मां के स्वप्न बड़े मूल्यवान हो गए। महावीर या बुद्ध के संबंध में कहा जाता है कि जब वे पैदा हुए, तो उनकी मां ने स्वप्न देखे । वे स्वप्न रोज मां के सामने प्रकट होते गए। उन स्वप्नों में बुद्ध या महावीर के जीवन की सारी रूप-रेखा प्रकट हो गई।
अगर मां सच में ही मां हो और आने वाले भविष्य में जो जन्म लेने वाला प्राण है उससे, उसके साथ पूरी पैसिविटी में हो, तो वह अपने बच्चे की जन्मकुंडली खुद ही लिख जा सकती है। किसी पुरोहित, किसी पंडित को दिखाने की जरूरत नहीं है। और मां जिसकी जन्मकुंडली न लिख सके, उसकी कोई पुरोहित और पंडित न लिख सकेगा। क्योंकि इतना तादात्म्य, इतना एकात्म फिर कभी किसी दूसरे से नहीं होता है। पति से भी नहीं होता है इतना तादात्म्य पत्नी का, जितना अपने बेटे से होता है। बेटा उसका ही एक्सटेंशन है, उसका ही फैलाव है।
लेकिन मां बनने के लिए कुछ भी करना नहीं पड़ता; पिता बनने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। मां बनने के लिए कुछ भी नहीं करना होता । मां बनने के लिए केवल मौन प्रतीक्षा करनी होती है। इस मौन प्रतीक्षा में दो चीजों का जन्म होता है: एक तो बेटे का जन्म होता है और एक मां का भी जन्म होता है।
इसलिए पूरब के मुल्क, जिन्होंने फेमिनिन मिस्ट्री को समझा, उन्होंने स्त्री को जो चरम आदर दिया है, वह मां का, पत्नी का नहीं। यह बहुत हैरानी की बात है।
मुझसे लोग पूछते थे कि आप संन्यासियों को स्वामी कहते हैं, लेकिन संन्यासिनियों को मां क्यों कहते हैं, जब कि अभी उनका विवाह भी नहीं हुआ? उनका बच्चा भी नहीं हुआ ?
असल में, मां का संबंध स्त्री की चरम गरिमा से है। वह अपनी चरम गरिमा पर सिर्फ मां के क्षण में होती है। उसका जो पीक एक्सपीरिएंस है, वह पत्नी होना नहीं है, प्रेयसी होना नहीं है-प्रेयसी और पत्नी होना केवल चढ़ाई की शुरुआत है उसका जो पीक एक्सपीरिएंस है, जो शिखर अनुभव है, वह उसका मां होना है।
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