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और अभी-लाओत्से को तो खयाल में भी नहीं हो सकता था-अभी आइंस्टीन और उसके साथियों की सतत खोज का जो परिणाम है, वह यह है कि एक नवीनतम खयाल फिजिक्स ने जगत को दिया। और वह है एक्सपैंडिंग यूनिवर्स का। अब तक हम सोचते थे कि जगत थिर है। लेकिन अब वैज्ञानिक कहते हैं, जगत एक्सपैंडिंग है, विस्तार होता हुआ है। जैसे कि कोई बच्चा अपने रबर के गुब्बारे में हवा भर रहा हो और गुब्बारा बड़ा होता जाए, ऐसा जगत रोज बड़ा हो रहा है। जितनी देर हम यहां बोलेंगे, उस बीच जगत बहुत बड़ा हो चुका होगा। प्रति सेकेंड लाखों मील की रफ्तार से जगत बड़ा हो रहा है। उसकी जो बाहरी परिधि है, वह आगे फैलती जा रही है। तारे एक-दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। जैसे कि एक छोटा रबर का फुग्गा है। उसको हम फुलाएंगे, तो उसकी परिधि पर दो बिंदु अगर बने हों, तो जैसे-जैसे फुग्गा फूलता जाएगा, दोनों बिंदु दूर होते जाएंगे। फुग्गा बड़ा होता जाएगा, बिंदु दूर होते जाएंगे। सब तारे एकदूसरे से दूर होते जा रहे हैं; केंद्र से परिधि दूर होती जा रही है।
लेकिन एक बड़ी कठिनाई में आइंस्टीन ने पश्चिम के विज्ञान को डाल दिया। और वह यह कि इसका अंत क्या होगा? और यह कहां होगा समाप्त? यह एक्सपैंशन कहां जाकर बंद होगा? और बंद होगा, तो इसके बंद होने के कारण क्या होंगे? अभी तक पश्चिम के पास दूसरी बात का खयाल नहीं है। लाओत्से से मिल सकता है, उपनिषदों से मिल सकता है। वह दूसरा खयाल यह है कि यह जगत का फैलाव भरती हुई श्वास है। लेकिन जो चीज फैलती है, फिर वह सिकुड़ती है। फिर लौटती हुई श्वास भी होगी। पश्चिम का विज्ञान अभी फैलती हुई श्वास के खयाल पर पहुंच गया है। अभी लौटती हुई श्वास का खयाल और आना जरूरी है।
पूरब के मनीषी कहते रहे हैं कि उस फैलते हुए एक्सपैंशन को हम कहते हैं सृष्टि, और जब सिकुड़ती है सृष्टि, श्वास जब बाहर जाने लगती है, तो हम उसे कहते हैं प्रलय। जब जगत पूरा फैल जाता है, तो अनिवार्यतया वापस लौटना शुरू हो जाता है। जैसे आपने श्वास भर ली और आपके फेफड़े फैल गए; और फिर श्वास निकलनी शुरू होगी और फेफड़े सिकुड़ जाएंगे।
भारत ने तो बहुत अदभुत बात कही है। उसने तो एक सृष्टि के काल को ब्रह्मा की एक श्वास कहा है। उसे हम यूं कह सकते हैं, अस्तित्व की एक श्वास। जब ब्रह्मा श्वास लेता है, तो जगत खिल जाता है, फैल जाता है। और जब ब्रह्मा श्वास छोड़ता है, तो सब सिकड़ कर अपने बीज में चला जाता है।
लाओत्से कहता है, पृथ्वी और स्वर्ग के बीच में ऐसी ही धौंकनी के श्वास का खेल है। और पृथ्वी और स्वर्ग के बीच में जितनी वस्तुएं हैं, सभी इस वंद्व से घिरी रहती हैं-फैलना, सिकुड़ना।
लाओत्से यह क्यों कहना चाहता होगा? लाओत्से इसलिए कहना चाहता है कि अगर आप फैलने के लिए बहुत आतुर हैं, तो सिकुड़ने की तैयारी रखना। अगर आप जीवन को पाने के लिए बहुत उत्सुक हैं, तो मरने की तैयारी रखना। अगर सुंदर होने की बहुत चाह है, तो कुरूप होने के आप बीज बो रहे हैं। अगर सफल आप होना चाहते हैं, तो असफलता की सीढ़ियां आप निर्मित कर रहे हैं।
लाओत्से से किसी ने कहा है जाकर एक दिन सुबह कि लाओत्से, तुमने कभी दुख जाना? तो लाओत्से हंसने लगा। उसने कहा, नहीं जाना; क्योंकि मैंने सुख को जानने की कभी कामना नहीं की।
दुख तो हम भी चाहते हैं कि न जानें। लेकिन हम इसीलिए चाहते हैं कि दुख न जानें, ताकि सुख को जानते रहें। हम भी चाहते हैं, दुख न हो; लेकिन इसीलिए ताकि सुख बना रहे। लाओत्से कहता है, मैंने दुख नहीं जाना, क्योंकि मैंने सुख को जानने की कोई आकांक्षा नहीं की।
हम दुख जानते ही रहेंगे, क्योंकि सुख को बोते समय ही दुख के बीज बो दिए जाते हैं। सुख की चाह से ही दुख का जन्म होता है। भीतर आती श्वास ही बाहर जाती श्वास बन जाती है। फैलाव ही सिकुड़ने का रास्ता है। और प्रकाश ही अंधेरे का द्वार बन जाता है। वह विपरीत हमारे खयाल में नहीं है। और पूरे समय लुहार की धौंकनी की तरह जीवन अपने विपरीत के बीच डोलता रहता है।
लाओत्से को हराया नहीं जा सकता, क्योंकि लाओत्से कहता है, मैंने कभी जीतना नहीं चाहा। और लाओत्से कहता था कि मेरा कभी अपमान कोई नहीं कर पाया, क्योंकि मैंने कभी कोई सम्मान की व्यवस्था नहीं की। और जब मैं कभी सभाओं में गया, तो मैं वहां बैठा जहां लोग जूते उतारते थे, क्योंकि वहां से और पीछे हटाए जाने का कोई उपाय न था। लाओत्से कहता था, मैं सदा नंबर एक रहा, क्योंकि नंबर दो मुझे कोई भी नहीं रख सकता। क्योंकि मैं आखिरी नंबर पर ही खड़ा रहा हूं। मैं कतार में सबसे पीछे ही खड़ा था। उससे पीछे करने का कोई उपाय न था। इसलिए मुझे कभी कोई पीछे करने में समर्थ नहीं हो सका।
यह बड़ी उलटी बात लगती है। लेकिन ठीक यही है। जो पीछे ही खड़ा है, उसे पीछे करने का कोई उपाय नहीं हो सकता। लेकिन जो आगे खड़ा है, उसके आगे खड़े होने में ही उसने वह सब व्यवस्था कर रखी है, जो उसे पीछे कर देगी। असल में, आगे खड़े होने के लिए जिन सीढ़ियों का उसने उपयोग किया है, उन्हीं सीढ़ियों का उपयोग उसे पीछे करने के लिए कोई और करेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन सुबह एक नदी के किनारे मछलियां पकड़ रहा है। उसने कुछ केंकड़े भी पकड़ लिए हैं। एक छोटी सी बालटी में उसने चार-छह केंकड़े भी डाल दिए हैं। गांव के तीन-चार बड़े राजनीतिज्ञ सुबह-सुबह घूमने निकले हैं। उन्होंने नसरुद्दीन को मछलियां पकड़ते बैठे देखा और उसकी टोकरी में, बालटी में केकड़ों को चलते देखा। तो उनमें से एक ने कहा, मुल्ला, अपनी बालटी को ढांक दो
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