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अभी भी हम जो उत्प्रेरित होते हैं, वह घास के पुतले को देख कर ही उत्प्रेरित होते हैं। अगर एक सुंदर शरीर मुझे आकर्षित कर लेता है, तो क्या मैंने कभी सोचा है कि घास मुझे उत्प्रेरित कर रहा है? अगर एक आदमी के शरीर की हत्या करने को मैं आतुर हो जाता हूं, तो क्या कभी मैंने सोचा है कि मैं घास को काटने के लिए, घास में छुरा भोंकने के लिए आतुर हो रहा हूं? किसी का होना मुझे खुशी देता है और किसी का न होना मुझे दुख से भर जाता है, तो क्या मैंने कभी सोचा है कि घास के पुतले की इतनी मौजूदगी, गैरमौजूदगी इतना अंतर म्झमें डाल देती है?
लाओत्से कहता है, प्रकृति को प्रयोजन नहीं है। वह आपको घास के कुत्तों जैसा जानती है। आप नहीं हैं, सिर्फ ताश का घर हैं।
लेकिन प्रकृति के संबंध में हम समझने को राजी भी हो जाएं, लाओत्से और भी कठिन बात कहता है। वह कहता है, तत्वविद भी सदय नहीं होते। वे जो जानते हैं संत, वे भी सदय नहीं होते।
संत तो सदा ही सदय होते हैं। हम तो कहते हैं, वे महा दयावान हैं। महावीर के भक्त कहते हैं, वे परम क्षमावान हैं। बुद्ध के भक्त कहते हैं, वे परम कारुणिक हैं। जीसस के भक्त कहते हैं कि उनका आना ही इसलिए हुआ कि लोगों को दया करके वे उनके दुख से छुटकारा दिला दें। कृष्ण के भक्त कहते हैं कि जब भी दुख होगा तब वे दया करके आएंगे और लोगों को मुक्त कर लेंगे। हम तो यही जानते रहे हैं अब तक कि संत सदय होते हैं।
लेकिन लाओत्से कहता है, संत भी सदय नहीं होते। क्योंकि संत वही है, जिसने प्रकृति के आंतरिक तत्व के साथ अपनी एकता साध ली है। नहीं तो वह संत नहीं है। अगर प्रकृति ऐसी है, अगर अस्तित्व ऐसा है कि सदय नहीं है, तो संत कैसे सदय हो सकते हैं! संत का अर्थ ही है, जो अस्तित्व के सत्य को उपलब्ध हो गया, जिसने सत्य के साथ एकता साध ली। अगर सत्य ही सदय नहीं है, तो संत कैसे सदय हो सकते हैं! क्योंकि संत का अर्थ ही यह है कि जो सत्य के साथ एक हो गया।
संत सदय नहीं होते! तत्काल हमारे मन में वंद्व खड़ा हो जाता है, कठोर होते होंगे।
नहीं, कठोर भी नहीं होते। न कठोर होते हैं, न विनम होते हैं; द्वंद्व के बाहर होते हैं। वे जो करते हैं, इसलिए नहीं कि आपके ऊपर कठोर हैं; इसलिए भी नहीं कि आपके ऊपर उनकी दया है; वे वही करते हैं, जो उनकी प्रकृति उनसे चुपचाप कराए चली जाती हैस्पांटेनियस और सहज। अगर आप एक संत के चरणों में जाकर सिर रख देते हैं और वह आपके सिर पर हाथ रखता है, तो इसलिए नहीं कि उसको दया है आप पर। ऐसा भी हो सकता है कि वह सिर पर हाथ न रखे, धक्का मार दे और हटा दे। तो भी जरूरी नहीं कि वह कठोर है आपके प्रति।
रिझाई जब सबसे पहले अपने गुरु के पास गया, तो उसका गुरु बहुत ही कठोर आदमी था, ऐसी लोगों में खबर थी। लोगों की खबरें आमतौर से गलत होती हैं। न उन्हें इसका पता है कि संत सदय होते हैं या कठोर होते हैं। उन्हें संत का ही पता नहीं है। रिझाई जब जाने लगा, तो गांव के लोगों ने कहा कि मत जाना उस बूढ़े के पास, वह आदमी कठोर है। रिझाई ने कहा, लोगों ने मुझसे कहा फलां संत बहुत दयावान है, मैं उनके पास भी जाकर देखा। मैंने पाया, उनमें कोई दया नहीं। अब तुम कहते हो, यह आदमी कठोर है; इसके पास भी जाकर देखू। बहुत संभावना यही है कि तुम भी गलत होओगे। तुम सदा ही गलत होते हो। उस आदमी ने हंस कर कहा, लौट कर तुम खुद ही कहोगे। यह तुम पहले आदमी नहीं हो, जिसको मैंने यह खबर दी है। और जिनको भी मैंने खबर दी, उन्होंने लौट कर कहा कि ठीक कहते थे, अच्छा होता हम न गए होते।
रिझाई गया। उसका गुरु द्वार पर बैठा था हाथ में एक डंडा लिए। झेन फकीर एक डंडा अपने हाथ में रखते रहे हैं सदा से। पता नहीं, शंकर ने अपने संन्यासियों को डंडा क्यों दिया? कम से कम हिंदुस्तान को तो पता नहीं है। शायद उसका ठीक-ठीक डंडे का कभी उपयोग शंकर के संन्यासी ने किया नहीं। क्योंकि हिंदुस्तान में संन्यासी के बाबत हमारी धारणा सदय होने की है। वह दंडीधारी संन्यासी तो कहलाता है, लेकिन उस डंडे का उपयोग सिर्फ एक फकीरों के वर्ग ने किया है जापान में, झेन फकीरों ने। गुरु डंडा लिए बैठा था। रिंझाई उसके सामने जाकर झुकता था।
गुरु ने कहा, रुक! मैं सभी को पैर नहीं छूने देता। पहले मेरी बात का जवाब दे दे, फिर तू पैर छू सकता है।
रिंझाई ने कहा, क्या है सवाल?
उसके गुरु ने कहा, सवाल पीछे बताऊंगा, पहले तुझे यह बता दूं कि तू हां में जवाब दे, तो भी यह डंडा तेरे सिर पर पड़ेगा; तू न में जवाब दे, तो भी यह डंडा तेरे सिर पर पड़ेगा। असल में, तू कोई भी जवाब दे, डंडा तो पड़ेगा ही। तू पहले सोच ले।
रिझाई ने कहा, तो मैं पहले पैर पड़ लूं और आप डंडा मार लें; जवाब-सवाल पीछे हो जाएगा। जब डंडा पड़ना ही है, तो इसकी चिंता को निपटा देना उचित है। इसे पहले निपटा लें, पीछे हम बात कर लेंगे। उसने सिर चरणों में रखा और गुरु को कहा, वह डंडा मार लें, ताकि यह डंडे का काम समाप्त हो जाए। फिर आप पूछ लें।
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