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अभी साइकोलॉजिस्ट या साइकोएनालिस्ट क्या कर रहे हैं? वे इतना ही कर रहे हैं। एक मरीज पर तीन साल तक साइकोएनालिसिस चलती है। कोच पर लिटाया है मरीज को; घंटों, हजारों घंटों, उससे चर्चा होती है। मरीज कहता जाता है, चिकित्सक सुनता जाता है। किसलिए? वह सिर्फ इसलिए कि कहते-कहते, कहते-कहते मरीज, बुद्धि की ऊपरी बातें थोड़े दिन में चुक जाएंगी, तब वह भीतर की बातें कहना शुरू कर देता है। फिर वे भी चुक जाती हैं, तो और आंतरिक बातें कहने लगता है। ओपनिंग हो जाती है। वर्ष भर निरंतर चिकित्सक के पास कहते-कहते, कहते-कहते वह आंतरिक चीजों को बाहर निकालने लगता है। और जब चिकित्सक देखता है कि अब वे चीजें बाहर निकलने लगी जो बहुत गहरी हैं, तब वक्त आया, यह आदमी सजेस्टेबल हुआ, इसको अब कोई सुझाव डाला जा सकता है। अब इसके भीतर का दरवाजा खुल गया, अब इसके भीतर कोई बीज डाल दिया जाए, तो वृक्ष बन जाएगा।
समझ का अर्थ है, आपके भीतरी तल तक पहुंच जाए कोई बात। लेकिन तर्क कभी न पहुंचने देगा। और हम तर्क से ही समझना चाहते हैं। और तर्क ही उपद्रव है; वही पहरेदार है। वह कहता है, पहले मुझे समझाओ। अगर मुझे समझाओ, तो मैं मालिक से मिला दूं। और अगर मुझे ही नहीं समझा पाते हो, तो मैं मालिक से क्या मिलाऊं? और फिर कठिनाई यह है कि जब वह समझ जाता है, तो वह समझता है, समझ गए, मालिक हो गए।
फिर वह देखता है, समझ तो हो गई, लेकिन कुछ हल नहीं होता। क्योंकि कोई, जिसको हम बुद्धि कहते हैं, उसके पास कोई भी शक्ति नहीं है। जिसको हम कहें कोई भी फोर्स टु एक्ट, बुद्धि के पास नहीं है। और फोर्स टु एक्ट जो है, शक्ति काम करने की, वह बुद्धि के पीछे किसी और छिपे तल में है। इसलिए यह व्यवधान पड़ता है।
तो अगर उस तक पहुंचना है, तो फिर अगर नहीं पहुंचता सीधा-किसी को पहुंच जाता हो, तब तो कोई सवाल नहीं-अगर नहीं पहुंचता सीधा, तो पहले इस बुद्धि के पहरे को तोड़ने के लिए उपाय करने पड़ते हैं। कुछ ध्यान करना पड़े; इस बुद्धि के पहरे को तोड़ना पड़े। और ध्यान की कोई ऐसी प्रक्रिया उपयोग में लानी पड़े, जो आपको निर्बुद्धि बना दे, इररेशनल बना दे।
जैसे मैं जो ध्यान का प्रयोग करता हूं, वह बिलकुल बुद्धिहीन है। तो बुद्धिमान उसको देख कर ही भाग जाएगा। वह कहेगा, यह क्या हो रहा है कि लोग नाच रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, कूद रहे हैं। पागल हैं! लेकिन जो आदमी नाच रहा है, कूद रहा है, वह बुद्धि के तल से नीचे उतर गया। क्योंकि बुद्धि तो सेंसस का काम करती है। वह कहती है, क्यों हंस रहे हो? अभी कोई हंसने की बात ही नहीं। पहले हंसने की बात तो होने दो, फिर हंसना। कहती है, क्यों रो रहे हो? अभी कोई रोने की बात ही नहीं। क्यों कूद रहे हो? कोई जमीन में
आंच लगी है, आग लगी है कि तुम कूद रहे हो! ये क्यों चूंसे तान रहे हो हवा में? पहले किसी को गाली देने दो, फिर घूसा उठाना। बुद्धि पूरे समय यह कह रही है कि जो तुम कर रहे हो, वह तर्कयुक्त हो। लेकिन जिंदगी में कभी भी कुछ तर्कयुक्त किया है? जब किसी से प्रेम हो जाएगा, तब बुद्धि कहां होगी? और जब किसी से क्रोध हो जाएगा, तब बुद्धि कहां होगी? और जब किसी को मारने का मन हो जाएगा या मरने का मन हो जाएगा, तब बुद्धि कहां होगी? तो जिंदगी की जहां असली जरूरतें हैं, वहां तो बुद्धि होगी नहीं। और उन गहरे बिंदुओं तक आप कभी उतर न पाएंगे, बुद्धि की बात मान कर चलेंगे तो।
ध्यान के सब प्रयोग आपकी बुद्धि की पर्त को तोड़ने के प्रयोग हैं! वह आपकी एक दफा पर्त टूट जाए, तो आप एकदम सरल हो जाते हैं। और जब आप सरल हो जाते हैं, तो आपके पास एक अंतर्दृष्टि होती है, जहां से चीजें साफ दिखाई पड़ती हैं। तब यह सवाल कभी नहीं उठता कि मेरी समझ में आ गया और क्रांति नहीं हुई। समझ में आ जाना ही क्रांति है। टु नो इज़ टु बी ट्रांसफाई। नालेज इज़ ट्रांसफार्मेशन। यह सवाल फिर नहीं उठता।
लेकिन यह उठता है। और मैं यह नहीं कहता कि गलत उठता है। हम जैसे हैं आज, उसमें यह सवाल उठेगा। हम दो हिस्सों में बंटे हुए हैं। जिस हिस्से से समझते हैं, उसका कोई संबंध नहीं है उस हिस्से से, जिससे करते हैं। करने का हिस्सा अलग, समझने का हिस्सा अलग। घर डिवाइडेड है, दो टुकड़ों में बंटा हुआ है। जिसके हाथ में ताकत है करने की, वह समझने नहीं आता; जिसके हाथ में करने की कोई ताकत नहीं है, वह समझने आता है। इन दोनों के बीच कभी कोई मेल नहीं होता। अब इसमें क्या किया जाए?
इसमें एक ही उपाय है कि आप इस समझने की जो पर्त है, इसको तोड़ कर थोड़ा नासमझी की दुनिया में उतरें; और थोड़ा नासमझ होकर देखें। तो आपके इन दोनों विभाजनों के बीच की दीवार धीरे-धीरे गिरेगी और आप दोनों में आना-जाना आपका शुरू हो जाएगा।
और तब आप इंटिग्रेटेड होंगे, इकट्ठे होंगे, एक होंगे। और वह जो एक आदमी है, वह जो भी समझ लेता है, वही उसकी जिंदगी में फलित हो जाता है।
हम दो हैं। और इसलिए हमारा जो सवाल है, वह जिंदगी-जिंदगी तक उलझता चला जाता है। और हर जिंदगी के बाद ज्यादा उलझ जाएगा, क्योंकि विभाजन बढ़ता ही चला जाता है। इस विभाजन को कहीं से तोड़ें।
पिछले आबू के शिविर में एक मित्र-पढ़े-लिखे, बड़े सरकारी एक पद पर-वे देखने आए थे। दो दिन तो वे देख रहे थे। मुझ से आकर कहा कि यह तो मैं न कर पाऊंगा। यह जो लोग कर रहे हैं, यह मैं न कर पाऊंगा। तो मैंने कहा कि यह आप कैसे कहते हैं कि न कर पाएंगे? करके देख कर कह रहे हैं, बिना करे कह रहे हैं? या सिर्फ इस भय से कह रहे हैं कि भीतर डर है कि हो तो यह भी मुझसे जाएगा? किस वजह से कह रहे हैं?
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