________________
Download More Osho Books in Hindi
Download Hindi PDF Books For Free
तो दो बात समझ लें। एक तो यह कि जिसको आप समझ कहते हैं, वह केवल तार्किक, शाब्दिक, बौद्धिक है; आंतरिक नहीं, आत्मिक नहीं, समग्र नहीं। आपके प्राणों तक वह जाती नहीं। और इसलिए रूपांतरण नहीं होता। बात बिलकुल समझ में आ जाती है, और आप वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं, कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता।
तो अब क्या करें? वह समझ हम कैसे लाएं जो समझ जड़ों तक जाए?
हमारी सारी शिक्षा और दीक्षा एक ही समझ की है, यह तथाकथित जो समझ है। गणित सीखते हैं इसी बुद्धि से; भाषा सीखते हैं इसी बुद्धि से। काम चल जाता है। काम इसलिए चल जाता है कि आपके भीतर के केंद्र का कोई विपरीत गणित नहीं है; नहीं तो काम नहीं चलता। आपके इनरमोस्ट सेंटर का अपना अगर कोई मैथेमेटिक्स होती, तो आपके स्कूल-कालेज सब दो कौड़ी हो जाते। लेकिन उसके पास कोई मैथेमेटिक्स नहीं है। इसलिए आप स्कूल में गणित सीख लेते हैं; भीतर से कोई विरोध नहीं होता। आप दो और दो चार जोड़ते रहें, जोड़ते रहें; भीतर कोई कहने वाला नहीं कि दो और दो पांच होते हैं। अगर भीतर का मन कहने को होता कि दो और दो पांच होते हैं, तो सारी यूनिवर्सिटीज कचरे में पड़ जाती, आप दो और दो चार नहीं जोड़ पाते। जब भी जोड़ने जाते, पांच लिखते।
इसलिए विश्वविद्यालय सफल है कामचलाऊ दुनिया के लिए। क्योंकि गणित हमारी ईजाद है, भाषा हमारी ईजाद है; जो भी हम सिखा रहे हैं स्कूल में, वह आदमी की ईजाद है। अगर हम आदमी को न सिखाएं, तो वह आदमी में होगा ही नहीं। अगर हम एक बच्चे को भाषा न सिखाएं, तो वह बच्चा अपने आप भाषा नहीं बोल पाएगा। लेकिन एक बच्चे को क्रोध सिखाने की जरूरत नहीं है; वह अपने आप क्रोध सीख लेगा। अगर हम एक बच्चे को गणित न सिखाएं, तो दुनिया में कोई उपाय नहीं है कि वह गणित सीख ले। लेकिन सेक्स या कामवासना सिखाने के लिए किसी विद्यापीठ की जरूरत नहीं पड़ेगी। उसे जंगल में डाल दो, खड्ड में, वहां भी वह सीख लेगा। सीख लेने का सवाल नहीं है; वह भीतर से आएगा।
तो इसका मतलब यह हुआ कि जीवन में जो चीज भी भीतर से आती है, उसी के मामले में अड़चन में पड़ते हैं आप। जो भीतर से नहीं आती, बाहर की है, उसमें अड़चन में नहीं पड़ते। आप कोई भी भाषा सीख लेते हैं। वह ऊपर का काम है, भीतर का मन उसके विरोध में नहीं है। चल जाता है। तो स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय आपको जो शिक्षा देते हैं, मन का ऊपरी हिस्सा ट्रेंड कर देते हैं वे। कठिनाई तब शुरू होती है, जब आप जिंदगी को भीतर से बदलना चाहते हैं, तब भी इसी ऊपरी हिस्से का उपयोग करते हैं। बस वहीं अड़चन हो जाती है।
सोचते हैं, क्रोध न करूं। यह आप उसी हिस्से से सीखते हैं, जिससे गणित सीखा था। यह क्रोध का मामला बहुत दूसरा है, गणित का मामला बहुत दूसरा है। गणित आदमी की ईजाद है, क्रोध अगर किसी की ईजाद है तो वह प्रकृति की है, आदमी की नहीं। इसी से हम समझ का काम लाते हैं, तब अड़चन हो जाती है और काम नहीं होता। अब उस भीतर तक समझ को ले जाना हो, तो उसकी प्रक्रिया है। प्रक्रिया का अर्थ यह हुआ कि आपको यह समझ भी कैसे मिली है? यह भी एक प्रशिक्षण है आपको। यह आपको एक बीस-पच्चीस साल के प्रशिक्षण के द्वारा यह संभव हुआ है कि दो और दो चार होते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अचानक अपने रास्तों पर देखा गया कि बहुत शानदार कपड़े पहने हुए है, हाथ में हीरे की अंगूठी लगाई हुई है। लोग चकित हुए। लोगों ने घेर लिया कि मुल्ला, क्या हुआ? उसने कहा कि एक लाटरी हाथ लग गई। पर कैसे लगी? मुल्ला ने कहा कि तीन रात तक लगातार सपना देखा, जिसमें मुझे सात का आंकड़ा दिखाई पड़ता था। तीन रात! तो मैंने सोचा, सात तिया अट्ठाइस। मैंने नंबर लगा दिया। पर लोगों ने कहा, अरे मुल्ला, क्या कह रहे हो, सात तिया अट्ठाइस! सात तिया इक्कीस होते हैं। मुल्ला ने कहा, होते होंगे, लेकिन लाटरी अट्ठाइस पर मिली। यानी इससे कोई...लाटरी मिल गई अट्ठाइस पर।
दो और दो चार की भी ट्रेनिंग है। दो और दो चार ऐसी कोई बात नहीं है कि आपके भीतर से आ गई है। उसकी ट्रेनिंग है। सीखना पड़ता है, सीख कर हल हो जाता है। अब यह जो अंतरस्थ मन है, इस तक समझ को पहुंचाने के लिए भी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़े।
लाओत्से ने जब ये बातें कही हैं, तब आदमी बहुत सरल था। अब बहुत से फर्क पड़ गए हैं, जो मैं आपको खयाल दिला दूं, जिससे अड़चन है। लाओत्से ने जब ये बातें कही हैं, आदमी बहुत सरल था। उसकी इंटलेक्चुअल ट्रेनिंग नहीं थी, उसकी कोई बौद्धिक पर्त नहीं थी। लाओत्से बोल रहा था गांव के ग्रामीण जनों से। वे सीधे-सादे लोग थे। उनके पास कोई बौद्धिक खजाना नहीं था। प्रकृति के सीधे करीब थे, निर्दोष थे। लाओत्से उनसे बोल रहा था। लाओत्से अगर आपसे बोले, तो सबसे पहला सवाल यही होगा, जो विजय ने पूछा है। यही सवाल होगा कि समझ में तो हमारे आपकी बात आ गई...| लाओत्से जिनसे बोल रहा था, वे यह सवाल कभी नहीं उठाए। लाओत्से और च्वांगत्से के हजारों संस्मरणों में यह सवाल एक आदमी ने नहीं उठाया है कि हमारी समझ में तो आ गया, लेकिन जिंदगी नहीं बदलती। हां, यह सवाल बहुत लोगों ने उठाया है कि हमारी समझ में नहीं आता। समझाएं!
फर्क समझ रहे हैं? यह सवाल उठाते हैं बहुत लोग कि हमारी समझ में नहीं आया, आप फिर से समझा दें! तो लाओत्से फिर से समझाएगा। एक बार ऐसा हुआ कि एक आदमी रोज सुबह आया, इक्कीस दिन तक आया। और रोज सुबह आकर वह कहता लाओत्से से कि तुमने जो कहा था, वह मैं भूल गया। तुमने जो कल कहा था, फिर से समझा दो। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन। फिर लाओत्से के एक शिष्य मातसु को हैरानी हुई। उसने उस आदमी को जब पांचवें दिन फिर आते देखा, तो उसने उसको झोपड़े के बाहर रोका और कहा कि क्या मामला है?
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज