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ताओ उपनिषाद (भाग-1) प्रवचन-15 समझ, शून्यता, समर्पण व पुरुषार्थ-(प्रवचन-प्रदहवां)
प्रश्न-सार: समझ के बाद भी क्रांति क्यों घटती नहीं?
अक्रिया साधेगे तो पुरुषार्थ का क्या होगा?
शून्य की पूर्णता कैसे मिलेगी?
घड़ा शून्य होगा तो घड़ा भी मिट जाएगा न?
मन को खाली कैसे किया जाए?
प्रश्न:
लाओत्से कहते हैं कि समझ, अंडरस्टैंडिंग, काफी है; समझ के साथ ही क्रांति घटित हो जाती है। हमें ऐसा लगता है कि कोई बात पूरी
समझ में आती तो है, लेकिन कोई क्रांति उससे घटित नहीं होती। इसका कारण क्या है, कृपया समझाइए!
लाओत्से कहता है, बात समझ में आ जाए, तो करने को कुछ बाकी नहीं रह जाता। समझ ही फिर करवा देती है, जो करने योग्य है।
और जो करने योग्य नहीं है, वह गिर जाता है, झड़ जाता है, जैसे सूखे पत्ते वृक्ष से गिर जाएं। जो न करने योग्य है, उसे रोकने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता; जो करने योग्य है, उसे करने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता। जो करने योग्य है, वह होने लगता है; जो न करने योग्य है, वह नहीं होना शुरू हो जाता है। यह समझ क्या चीज है? क्योंकि पूछते हैं कि समझ में आता हुआ मालूम पड़ता है, लेकिन जिस क्रांति की बात कहता है लाओत्से, वह तो घटित नहीं होती। तो इससे दो ही मतलब हो सकते हैं: या तो लाओत्से जो कहता है, वह गलत कहता है; और या फिर जिसे हम समझ समझ लेते हैं, वह समझ नहीं है।
लाओत्से तो गलत नहीं कहता। लाओत्से तो इसलिए गलत नहीं कहता कि उसने जो कहा है, वह अकेले उसने ही नहीं कहा है; इस पृथ्वी पर जितने भी जानने वाले लोग हुए हैं, उन सबने वही कहा है। जिन्हें लाओत्से का पता भी नहीं है-चाहे यूनान में सुकरात कहता हो, तो यही कहता है; चाहे बुद्ध कहते हों भारत में, यही कहते हैं-जहां भी कभी कोई जानने वाले ने कुछ कहा है, उसने यही कहा है कि समझ काफी है।
इसमें कई बातें हैं, वे खयाल में ले लें। और तब यह समझ में आ सकेगा कि अगर क्रांति घटित नहीं होती, तो जिसे हम समझ समझ रहे हैं, वह समझ नहीं है।
पहली बात तो यह है कि जो गलत है, वह हमसे क्यों होता है? जो सही है, वह हमसे क्यों नहीं होता? इसके पीछे कारण नासमझी है या कोई और? अगर नासमझी ही कारण है, तो समझ से मिट जाएगा। अगर नासमझी से भी अलग कोई कारण है, तो समझ से नहीं मिटेगा। असली सवाल यही है कि जो हमसे होता है, उसमें हमारा अज्ञान ही कारण है, तब तो ज्ञान से मिट जाएगा।
इस कमरे में से मैं निकलता हूं और दीवार में मेरा सिर टकराता है। इसका कारण कमरे में अंधेरे का होना ही अगर है, तो प्रकाश होते से ही यह सिर का टकराना रुक जाएगा। रुक ही जाना चाहिए। अगर प्रकाश हो जाने पर भी मैं वैसा ही टकराता हूं दीवार से, जैसा अंधेरे में टकराता था, तो उसके मतलब दो ही हुए। उसका या तो मतलब यह हुआ कि प्रकाश हुआ नहीं है; मैंने समझा है, है नहीं। और या उसका यह अर्थ हुआ कि दीवार से टकराने का कोई संबंध अंधेरे से न था। कोई और ही बात थी, अंधेरे और प्रकाश से कोई लेना-देना न था।
अगर और कोई बात है, जो ज्ञान से भी नहीं मिटती, तो फिर तो कभी नहीं मिटेगी। जो चीज ज्ञान से नहीं मिट सकती है, फिर वह किस चीज से मिटेगी? फिर उसे कौन मिटाएगा? क्योंकि ज्ञान से ऊपर हमारे भीतर कुछ भी नहीं है। ज्ञान से श्रेष्ठ हमारे भीतर कुछ भी नहीं है। अगर ज्ञान से भी नहीं मिटता है कुछ, तो हम कहते हैं, कर्म से मिटेगा। तो कर्म कौन करेगा? वह तो अज्ञानी करेगा कर्म। अगर ज्ञान से नहीं मिटता है, तो अज्ञानी के कर्म से कैसे मिटेगा?
लेकिन यह सवाल ठीक है। क्योंकि समझ, हमें लगती है कि हो गई पूरी; और फिर भी क्रांति घटित नहीं होती। वह ट्रांसफार्मेशन, वह रूपांतरण नहीं होता।
तो अब यह समझना पड़ेगा कि समझ भी दो तरह की हो सकती है। एक समझ, जो सिर्फ प्रतीत होती है, एपरेंटली मालूम पड़ती है कि समझ है। हमारे पास समझ का एक यंत्र है-बुद्धि। बुद्धि के द्वारा हम किसी भी चीज को तर्कयुक्त रूप से समझ सकते हैं। अगर ठीक तर्कबद्ध विचार प्रस्तुत किया जाए, उसमें कोई तर्क की भूल न हो, तो बुद्धि समझ लेती है कि ठीक है, समझ में आ गया।
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