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और एक लाओत्से है! वह कह रहा है कि शून्य सामने खड़ा है, सब खो गया, फिर भी यह नहीं कहता कि यह सत्य है; कहता है, प्रतिबिंब है शायद। शायद जो परमात्मा के भी पहले था, उसका प्रतिफलन है, सिर्फ एक उसकी छवि है, एक छाया है।
यह इतना ही आईअस है मार्ग! इतना ही तपश्चर्यापूर्ण है! इतने ही सजग होने की बात है।
मन लुभाने की बहुत बातें करता है। वह कहता है, जरा सा कुछ चिंदी मिल जाए, तो ऐसा लगता है कि पूरी कपड़े की मिल हाथ लग गई। और मन मानने का करता है। और अगर ऐसे आदमी से कह दो कि यह कुछ नहीं, तो फिर दुबारा नहीं आता। वह आप पर नाराज हो जाता है। वह मैंने करके देखा। फिर मैंने कहा, वह बेकार है; वह आता ही नहीं फिर दुबारा। वह नाराज ही हो जाता है। वह कहता है कि क्या! इतना ऊंचा सत्य लेकर गए कि हमने कहा कि भीतर हमको लाल रंग दिखाई पड़ रहा है, आकाश में बादल चलते दिखाई पड़ते हैं, और आपने कह दिया यह कुछ भी नहीं है! वह दूसरे गुरु की तलाश में गया, जो कहेगा कि यह कुछ है।
मैंने यह अनुभव किया वर्षों कि अगर किसी को कह दो कि यह कुछ भी नहीं है, तो फिर वह आता ही नहीं। वह इसलिए नहीं आया था कि उसे कुछ खोजना है; वह इसलिए आया था कि आप गवाह बन जाएं कि यह कुछ है। क्षुद्रतम मन की कल्पनाएं भारी मालूम पड़ती हैं।
अदभुत लोग हैं लाओत्से जैसे लोग!
बुद्ध ने कहा है, जब तक मुझे कुछ भी दिखाई पड़ता रहेगा, तब तक मैं मानूंगा कि अभी सत्य तक नहीं पहुंचा। जब तक कुछ भी दिखाई पड़ता रहेगा, तब तक मैं मानूंगा, अभी तक मैं सत्य तक नहीं पहुंचा। जहां तक दृश्य होगा, वहां तक नहीं ठहरूंगा। मुझे वह जगह चाहिए, जहां दृश्य न रह जाए, जहां कुछ भी दिखाई न पड़े, जहां कुछ भी न बचे, जहां निखालिस खाली होना मात्र बचे, उसके पहले नहीं।
इसलिए बुद्ध छह साल तक भटके। जिस गुरु के पास जाते...कोई गुरु उनको प्रकाश का दर्शन करा देता। बुद्ध कहते, हो गया प्रकाश का दर्शन, लेकिन अब? इसके आगे?
अब और आगे क्या है! प्रकाश का दर्शन हो गया, बहुत हो गया।
पर बुद्ध कहते, प्रकाश का दर्शन हो गया, लेकिन कुछ भी तो नहीं हुआ। हुआ क्या? ठीक है, प्रकाश का दर्शन हो गया। अब? मैं तो वहीं के वहीं खड़ा हूं।
तो गुरु उनको हाथ जोड़ने लगे। उनसे कहने लगे, अब तुम किसी और के पास जाओ। हम तो जो जानते थे, वह हमने करवा दिया।
छह साल बुद्ध एक-एक गुरु, जो बिहार में उपलब्ध था उस वक्त, उसके पास गए। जो उसने कहा, वह किया। करके बताया कि यह हो गया। अब? अभी कोई सत्य तो दिखाई नहीं पड़ता।
हरे, पीले, लाल रंग दिखाई पड़ने से कोई सत्य दिखाई पड़ जाएगा? कि आपके भीतर एक दीए की ज्योति दिखाई पड़ने लगी, तो आप समझे...। पर लोग मुझे पत्र लिखते हैं कि नदी-नाले दिखाई पड़ रहे हैं, पहाड़ दिखाई पड़ रहे हैं; प्रगति ठीक हो रही है?
अब नदी-नालों और पहाड़ों ने आपका क्या बिगाड़ा है? और सत्य से उनका क्या लेना-देना है?
लेकिन वे जो हमारे भीतर छिपे हुए कल्पना के जाल हैं, वे प्रोजेक्टर का काम करना शुरू कर देते हैं। जब आप खाली बैठते हैं, खाली बैठे नहीं कि वह मन जो दिन-रात ताने-बाने बुनता रहता है, वह शुरू कर देता है, वह शुरू कर देता है अपना बुनाव। वह अपना बुनाव शुरू कर देता है-किसी को जरा संगीत में रुचि है, तो उन्हें कुछ गीत की कड़ियां दोहरने लगती हैं; किन्हीं को अगर रंगों में थोड़ा रस है, तो रंग फैलने लगते हैं-वह सब शुरू हो जाता है।
लाओत्से की हिम्मत देखने जैसी है! आखिरी क्षण में भी वह कहता है, प्रतिबिंब ही होगा यह; क्योंकि अभी मैं बाकी हं। सत्य तो वहां है, जहां मैं भी नहीं हूं।
ये सूत्र इस अध्याय के पूरे हो जाते हैं। कल की बैठक, आपके जो भी सवाल हों इन छह दिनों में, लाओत्से ने जो बातें कही हैं, उनके संबंध में जो भी सवाल हों, वे सभी अपने सवाल लिख लाएं या सोच लाएं। कल सवालों पर बात करेंगे।
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज