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सकती, बाहर ही भटकना पड़ता है। जब भी भीतर जाएंगे, तो आत्मा नहीं मिलेगी, मन ही मिलेगा। कोई विचार, कोई वृत्ति, कोई वासना मिलेगी। क्योंकि इतना भरा है सब। घर के भीतर जाते हैं, तो फर्नीचर तो मिलता है, मालिक नहीं मिलता।
लाओत्से कहता है, जो ज्ञानी हैं, वे कहते हैं, शरीर तो भरा-पूरा हो, पुष्ट हो, मन खाली हो। मन ऐसा हो, जैसे है ही नहीं। और लाओत्से कहता है, मन के खाली होने का अर्थ है, अ-मन हो, नो माइंड हो, जैसे है ही नहीं। जैसे मन की कोई बात ही नहीं है भीतर। उस खाली मन में ही जीवन की परम कला का आविर्भाव होता है और जीवन के परम दर्शन होने शुरू होते हैं।
“वे उनकी हड्डियों को दृढ़तर बनाते हैं, परंतु उनकी इच्छा-शक्ति को निर्बल करते हैं।'
हड्डियों को मजबूत बनाते हैं, लेकिन उनके विल को, उनके संकल्प को कमजोर करते हैं, क्षीण करते हैं। हम सब तो संकल्प को मजबूत करते हैं। हम तो किसी व्यक्ति से कहते हैं कि क्या तुममें कोई विल-पावर ही नहीं? तुममें कोई संकल्प की शक्ति नहीं? अगर संकल्प की शक्ति नहीं, तो तुम बिना रीढ़ के आदमी हो! तुम आदमी ही नहीं! और लाओत्से कहता है, ज्ञानी संकल्प की शक्ति को क्षीण करते हैं। अजीब बात है। हम तो एक-एक बच्चे को सिखा रहे हैं कि विल बढ़नी चाहिए। इस सदी के जो बहुत बुद्धिमान लोग हैं, उन सभी का खयाल है कि आदमी में संकल्प बढ़ना चाहिए।
नीत्शे ने बहुत अदभुत किताब लिखी है: विल टु पावर! नीत्शे का खयाल है कि आदमी के पूरे जीवन का एक ही लक्ष्य है कि शक्ति का संकल्प। शक्ति कैसे मिले, इसका संकल्प। और जो आदमी जितना संकल्पवान है, उतना महान है। कारलाइल या इमर्सन, ये सारे के सारे पश्चिम के विचारक संकल्प पर जोर देते हैं कि संकल्प मजबूत हो। तुम्हारी इच्छा-शक्ति ऐसी होनी चाहिए कि अटल पत्थर की दीवार; कि जगत हिल जाए, लेकिन तुम न हिलो। टूट जाओ, मिट जाओ, झुको मत।
लाओत्से कहता है कि हड्डियां हों मजबूत, संकल्प-शक्ति बिलकुल क्षीण हो, हो ही नहीं। क्यों? क्योंकि मनुष्य के सामने दो चीजों के बीच चुनाव है: या तो संकल्प या समर्पण। जो संकल्प करेगा, उसका अहंकार मजबूत होगा। जो समर्पण करेगा, उसका अहंकार गलेगा
और मिटेगा। जो संकल्प के रास्ते से चलेगा, वह अपने पर पहुंचेगा। और जो समर्पण के रास्ते से चलेगा, वह परमात्मा पर पहुंचता है। परमात्मा तक पहुंचना हो, तो छोड़ देना पड़ेगा अपने को। और स्वयं के मैं को मजबूत करना हो, तो फिर पकड़ लेना पड़ेगा अपने को।
तो शरीर चाहे मिट जाए, हड्डियां चाहे टूट जाएं, संकल्प न टूटे। ऐसी हम सब की व्यवस्था है। इसको हम सीधी व्यवस्था कहते हैं। क्योंकि हम कहते हैं, कैसे कमजोर आदमी हो? लड़ नहीं सकते, जूझ नहीं सकते, शक्ति नहीं तुममें कोई। और लाओत्से कहता है, यह शक्ति होनी ही नहीं चाहिए। नहीं, ऐसा नहीं कि तुम टूट जाओ लेकिन झुको मत; लाओत्से कहता है, तुम ऐसे होओ कि तुम्हें पता ही न चले कि तुम कब झुक गए। हवा को पता भी न चले कि तुमने रेसिस्ट किया, कि तुमने थोड़ा भी प्रतिरोध किया। हवा आए कि तुम पहले ही झुक जाओ, जैसे घास के छोटे-छोटे तिनके झुक जाते हैं। अड़ियल वृक्ष अकड़ कर खड़े रह जाते हैं, तूफान से टक्कर लेते हैं; छोटे पौधे झुक जाते हैं। और बड़ा मजा यह है कि छोटे पौधे तूफान को जीत लेते हैं और बड़े पौधे तूफान से मर जाते हैं।
लाओत्से कहता है, अगर तुम लड़ोगे, तो हारोगे। क्योंकि जिससे तुम लड़ रहे हो, तुम्हें पता नहीं, वह कौन है। एक-एक व्यक्ति जब भी लड़ रहा है, तो अनंत शक्ति से लड़ रहा है। हमारे चारों ओर जो अनंत निवास कर रहा है, हम उससे ही लड़ रहे हैं। लाओत्से कहता है, लड़ो मत, लड़ो ही मत। लड़ने का सवाल ही न उठे, तुम अपने को इतना अलग ही मत मानो कि तुम्हें लड़ना भी है। तुम गिर जाओ। तुम तूफान के साथ ही हो जाओ। कोआपरेट विद इट, उसका सहयोग करो। तूफान पता ही नहीं चलेगा कि तुम्हारे पास से कैसे गुजर गया। और तूफान के गुजर जाने के बाद तुम पाओगे कि तुम्हें तूफान ने छुआ भी नहीं। और तुम पाओगे, तुम्हारी शक्ति का इंच भर भी नष्ट नहीं हुआ। क्योंकि तुम लड़े ही नहीं। और हारने का कोई सवाल नहीं है, क्योंकि जिसका तूफान है, उसी के तुम हो।
वह जो लड़ने आया था, तुम्हें लगा था कि लड़ने आया है। वह लड़ने आया नहीं था। तुम्हारे संकल्प की वजह से तुम्हें लगा था कि लड़ने आया है। तुम लड़ने को उत्सुक थे, इसलिए तुमने उसे शत्रु की तरह व्याख्या कर ली। अन्यथा कोई व्याख्या की जरूरत न थी।
इसे थोड़ा समझें। सच में कोई शत्रु होता है? या हम व्याख्या करते हैं कि वह शत्रु है। और व्याख्या हम क्यों करते हैं? हम व्याख्या इसलिए करते हैं कि हम लड़ना चाहते हैं। अगर मैं लड़ना ही नहीं चाहता, तो एक बात निश्चित है कि मैं शत्रु की व्याख्या नहीं करूंगा कि कोई शत्रु है। लड़ना चाहता हूं, तो शत्रु को निर्मित करूंगा। सब शत्रुता संकल्प से निर्मित होती है। सब संघर्ष संकल्प से निर्मित होता है।
लाओत्से कहता है, तुम तो ऐसे हो जाओ, जैसे हो ही नहीं। जैसे तलवार हवा से निकल जाती है। हवा कहीं कटती नहीं, क्योंकि हवा रेसिस्ट नहीं करती। पानी से तलवार गुजार देते हो, पानी कटता नहीं। तलवार काट भी नहीं पाती कि पानी जुड़ जाता है। क्योंकि पानी रेसिस्ट नहीं करता, वह प्रतिरोध नहीं करता। तुम भी लड़ो मत। लाओत्से कहता है, तुम भी हवा-पानी जैसे हो जाओ। काटने वाली शक्ति को गुजर जाने दो। तुम अगर न लड़ोगे, तुम उसके गुजरते ही पाओगे कि जुड़ गए हो। तुम टूटे ही नहीं, तुम खंडित ही नहीं हुए। अगर तुम लड़े, तो तुम टूट जाओगे।
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