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________________ चाहिये, तूं व्रत ग्रहण कर रहा है इसलिये तेरी स्त्रीयाँ रुदन कर रही हैं सो जीवदया की खातिर तूझे व्रत ग्रहण नहीं करना चाहिए।' नमि मुनि ने उत्तर दिया, 'मेरा व्रत उस दुःख का कारण नहीं है पर उनके स्वार्थ में हानि पहुँच रही है, वह उन्हें दुखकर्ता है। मैं तो मेरा कार्य ही कर रहा हूँ।' इन्द्र ने कहा, 'हे राजन्! तेरे महल, अंत:पुर आदि जल रहे हैं, उनकी तूं क्यों उपेक्षा कर रहा है?' नमिराजर्षि ने कहा : 'यह महल मेरा नहीं है, अंत:पुर भी मेरा नहीं है।' इन्द्र बोले : 'राजन्! तूं राज्य छोड़कर जा रहा है तो इस नगरी के किल्ले को मजबूत करके जा।' राजर्षि ने कहा : 'मेरा तो संयम ही नगर है, उसमें शम नामक किल्ला है और नय नामक यंत्र है।' __इन्द्र बोले : 'हे क्षत्रिय! लोगों को रहने के लिए मनोहर प्रासाद निर्माण करवाकर व्रत लेना।' मुनि ने उत्तर दिया, 'ऐसा तो दुर्बुद्धिजन करते हैं, मेरी तो जहाँ देह है वही मंदिर है।' इन्द्र ने कहा : 'तूं चोर लोगों का निग्रह करने के पश्चात् व्रत ले।' मुनि बोले : 'मैंने राग, द्वेष आदि चोरों का निग्रह किया है।' इन्द्र ने कहा : 'कई उद्धत राजा अभी भी तेरे कदम नहीं चूमते हैं, उनका पराजय करके प्रवज्या ग्रहण कर।' राजा ने कहा : 'युद्ध में लाख सैनिकों को, जीतने में क्या जय? खरी जय तो एक आत्मा को जीतने से होती है और उसको जीत कर मैंने परम जय पाई है। [इत्यादि बोधदायक नमिराजर्षि एवं इन्द्रराजा का संवाद उत्तराध्यन सूत्र से जान सकते हैं।] . यह संवाद पूरा होते ही नमिराजा चल पड़ते हैं। इन्द्र अपना असली स्वरूप प्रकट करके बोले : 'हे यतिश्वर! आप धन्य है। आपने सर्व भाव के बैरी का पराभव करके आपका उत्कृष्ट स्वभाव दिखाया है।' इस प्रकार स्तुति करके इन्द्र स्वर्ग में गये और नमिराजा कालानुसार मोक्ष पधारें। जिन शासन के चमकते हीरे • ७१
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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