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________________ - -श्री रहनेमि एक बार भगवान नेमिनाथ अपने साधु समुदाय के साथ विहार करते करते गिरनार पर्वत पर ठहरे थे। भगवान नेमिनाथ के संसारीपन के छोटेभाई रहनेमि गोचरी लेकर प्रभु के पास पधार रहे थे। अचानक वृष्टि हुई । बरसात से बचने के लिए मुनि नज़दीक की गुफा में घूसे । उसी समय साध्वी राजीमती प्रभु को वंदन करके लौट रही थी। उन्होंने भी अनजाने में गुफा मे प्रवेश किया। उनके वस्त्र बरसात में भीग गये थे इसलिये गुफा में भीगे हुए वस्त्र सूखाने के लिए निकाल डालें। अपकाय जीवों की विराधना की व्याकुलता के कारण धुंधले अंधकार में समीप खड़े रहनेमि मुनि को उसने देखा नहीं। धुंधले प्रकाश में वस्त्रविहीन दशा में राजीमती को देखकर मुनि कामातुर हुए। उन्होंने राजीमती को कहा, 'हे भद्रे! मैंने पहले भी तुम्हारी आशा रखी थी। आज भी कहता हूँ कि अभी भी भोग का अवसर है।' आवाज़ से रहनेमि को पहचानकर राजीमती ने वस्त्रों से अपना शरीर ढक कर कहा, 'कुलीन जन को ऐसा बोलना शोभास्पद नहीं है। आप नेमिजी के लघु बन्धु हो और उनके शिष्य भी हो फिर भी आप में ऐसी दुर्बुद्धि आई कहाँ से? मैं सर्वज्ञ की शिष्या होकर आपकी इच्छापूर्ति नहीं करूंगी। ऐसी इच्छा मात्र से आप भवसागर में डूबोगे। मैं उत्तम कुल की पुत्री हूँ, आप भी उत्तम कुल के पुरुष हो। हम कोई नीच कुल में उत्पन्न नहीं हुए है जो ग्रहण किये हुए संयम का भंग करें । अनंधन कुल के सर्प भी वमन किया हुआ पुनःखाने की इच्छा नहीं रखते, इससे अच्छा तो वे अग्नि में जाना पसंद करते हैं। रहनेमि ने इच्छा दुहराई, जवानी भोग ले और धर्म तो बुढापे में भी होगा ऐसा कहा। राजीमती जो महान चारित्रवान थी उन्होंने रहनेमि को प्रतिबोधित करके समझाया, 'उत्तम मनुष्य भव प्राप्त हुआ है और यह चारित्र लिया है तो भवसागर पार करने के बजाय नर्क जाने के लिये क्यों तैयार हुए हो? रहनेमि को बड़ा पश्चाताप हुआ। सर्व प्रकार के भोगों की इच्छा उन्होंने छोड़ दी और राजीमती को बिनंती की, 'मेरा यह पाप किसीको कहना नहीं।' राजीमती ने कहा, 'प्रभु सर्व है, वे तो सब जानते ही हैं।' रहनेमिने प्रभु नेमिनाथ के पास जाकर अपने दुश्चारित्र की आलोचना की और एक वर्ष तक सुंदर तपश्चर्या और चारित्र पालकर केवलज्ञान प्राप्त किया व मोक्ष पधारे। जिन शासन के चमकते हीरे . ३८
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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