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पर से मनुष्य ही नहीं, पक्षी भी नहीं फड़कते । आप अन्य लम्बे मार्ग से श्वेतांबी नगरी पधारें । अनंत करुणासागर प्रभु ज्ञान से चंडकौशिक के भवों को जानकर प्रतिबोधना के लिए उसी भयंकर मार्ग पर विचरे और अरण्य में नासिका पर नेत्र स्थिर करके कायोत्सर्ग ध्यान लगाया।
कुछ ही समय में सर्प ने प्रभु को यूं खड़े देखा। मेरी अवज्ञा करके कौन घूस आया हैं? भयंकर रूप से फूफकारा, लेकिन प्रभु पर उसका कोई असर न पड़ा। क्रोधित होकर प्रभु के चरणकमल पर डँस लिया । डंस पर रुधिर के बजाय दूध की धारा निकलती देखकर विस्मित हुआ और प्रभु के अतुलनीय रूप को निहारते हुए नेत्र स्तब्ध हो गये और थोड़ा शांत बन गया वह ! तब प्रभु ने कहा, 'अरे चंडकौशिक बूज ! बूज ! मोहित न हो ।' भगवान के वचन से सर्प को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, प्रभु की तीन परिक्रमाएँ करके मनसे अनशन करना निश्चित किया । सर्प के भाव को समझकर अपनी करुणा दृष्टि से प्रभु ने उसे सिंचित किया।
अधिक पाप से बचने के लिए अब किसी पर भी दृष्टि न गिरे इसलिये वह बील में मुँह डालकर हिले-डुले बिना अनशन व्रत धर कर पड़ा रहा । उसके उपसर्ग बंद होते ही लोग वहाँ से जाने-आने लगे । सर्प देवता शांत हो गये है, समझकर वहाँ से गुजरती ग्वालिने पूजा के रूप में उस पर घी छिड़कने लगी। घी की सुगंध से असंख्य चींटियां उसके शरीर पर आकर घी खाती और उसके शरीर को काटने लगी। धीरे धीरे सर्प का शरीर छलनी बन गया। यह सर्पराज दुसह्य वेदना सहते रहे और बेचारी अल्प बलवाली चींटियाँ शरीर के वजन से कुंचली न जाय ऐसा समझकर उसने शरीर को थोड़ा सा भी हिलाया नहीं । इस प्रकार करुणा के परिणाम एवं भगवंत की दयामृत दृष्टि से सिंचित सर्प एक पखवाडे के बाद मृत्यु पाकर सहस्रार देवलोक में देवता बने ।
निंदा करते झूठे जन, उससे कभी डरो मत, पक्के सत्य विचार से, पीछे कभी हटो मत।
जिन शासन के चमकते हीरे • २९