________________
१०६
-महाराजा श्रेणिक
भगवान महावीर के समय में मगध देश में राजा श्रेणिक राज्य करते थे। शरू शरू में ज्ञान न होने के कारण उनको शिकार करने का भारी शौक था। शिकार करने में उन्हें मजा आता।
एक दिन श्रेणिक जंगल में शिकार करने गये। वहाँ दूर से एक हिरनी को देखा। उन्होंने अपना घोड़ा उस ओर दौडाया - धनुष्य पर बाण चढाया घोडा - दौड रहा है, हिरनी भी दौड रही है। बराबर निशान ताककर श्रेणिक ने तीर छोडा। तीर हिरनी के पेट में धंस गया। उसका पेट फट गया। पेट में से मरा हुआ बच्चा बाहर निकला। हिरनी भी मर गई। श्रेणिक घोडे पर उतरकर मरी हुई हिरनी के पास आया। दृश्य देखकर बडा प्रसन्न हुआ। गर्व से बोला, 'मेरे एक ही तीर से दो - दो पशु मर गये। हिरनी और उसका बच्चा भी! शिकार इसे कहा जाता है।' श्रेणिक को आनंद समाया नहीं जा रहा था। हर्ष से झूम उठा और श्रेणिक राजा ने तीसरे नर्क - गति का कर्म बांध लिया।
तत्पश्चात् श्रेणिक कालक्रमानुसार धीमे धीमे ज्ञान प्राप्त होने पर भगवान के परम उपासक बने। भगवान महावीर के परिचय में आये। एक बार भगवान को अपनी गति पूछी। तब सर्वज्ञ भगवानने कहा, 'श्रेणिक! मरकर तूं तीसरे नर्क को जायेगा।' श्रेणिक घबराये, वे बोले : 'प्रभु! मैं आपका परम भक्त और नर्क में जाऊँगा?'
भगवान ने कहा, 'श्रेणिक! तू शिकार करके खूब हर्षित बना था, इससे तेरा नर्क गति का आयुष्य बंध गया है। तेरा वह पापकर्म निकाचित था। वह कर्म भोगना ही पडेगा। हम भी उसे निष्फल करने में समर्थ नहीं है।'
'हे राजन्! इस नरक की वेदना तुझे भुगतनी ही है परंतु तू जरा सा भी खेद मत कर क्योंकि भावि चौबीसी में तूं पद्मनाभ नामक प्रथम तीर्थंकर बनेगा।' श्रेणिक बोला, 'हे नाथ! ऐसा कोई उपाय हैं कि जिससे अंधकूप मे गिरे अंध की भाँति नर्क में मेरी रक्षा हो?'
प्रभु बोले, 'हे राजन् !' कपिला दासी द्वारा यदि साधुओं को प्रसन्नता
जिन शासन के चमकते हीरे • ३१३