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________________ १०४ -श्री कुरगडु मुनि ___ एक दृष्टिविष सर्प था। उसको किसी भी तरफ से देखने वाले की मृत्यु हो जावे ऐसा विषयुक्त उसका शरीर था। पूर्व भव में किये हुए पापों का जाति स्मरण ज्ञान होने से उसे याद आया तो उस कारण से वह बिल मे ही मुँह रखने लगा - मुँह बाहर निकाले और कोई देखे तो लोगों की मृत्यु हो जाय-ऐसा मुझे नहीं करना चाहिये - ऐसा सोच समझकर पूंछ बाहर रहे उस प्रकार से बिल में रहने लगा। कुंभ नामक राजा के पुत्र को किसी सर्प ने डसलिया।जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गयी। कुंभ राजा शत्रु पर बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने हुकम दिया कि जो कोई सर्पको मारकर उसका शव ले आयेगा तो हरेक शब के लिए एक एक सुवर्णमुद्रा इनाम में दी जायेगी। इस ढंढेरे से लोग ढूंढ ढूंढ कर साँप मारकर उनके मृत शरीर को लाने लगे। एक व्यक्ति ने दृष्टिविष सर्प की पूंछ देखी। वह जोर से पूंछ खींचने लगा मगर दयालु सर्प बाहर न निकला।पूंछ टूट गयी।सर्प यह वेदना समता से सहन कर रहा था। और टूटी हुई पूंछ का थोडा भाग दीखते ही उस व्यक्ति ने काट लिया। इस प्रकार शरीर का छेदन-भेदन हो रहा था, उस वक्त सर्प सोच रहा था कि 'चेतन ! तूं ऐसा मत समझ कि यह मेरा शरीर ही कट रहा है परंतु ऐसा समझ कि यह शरीर कटने से तेरे पूर्व किये हुए कर्म कर रहे हैं। यदि उनको समता से सहन करेगा तो यह दर्द भविष्य में तेरा भला करनेवाला होगा' ऐसा सोचकर उसने अंत में मृत्यु पायी। एक रात्रि को कुंभ राजा को स्वप्न आया कि तेरा कोई पुत्र नहीं है उसकी लगातार चिंता तूं करता है । यदि मैं अब कोई सर्प को नहीं मारूंगा ऐसी प्रतिज्ञा तूं लेगा तो पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। इस कारण कुंभ राजा ने अब किसी सर्प को न मारने की किसी आचार्य से प्रतिज्ञा ली। दृष्टिविष सर्प मरकर इस कुंभराजा की रानी की कुक्षि से अवतरित हुआ। उसका नाम नागदत्त रखा। यौवन अवस्था में पहुंचने पर एक बार अपने झरोखे में खड़े खड़े नीचे जैन मुनियों को जाते हुए देखा और सोचते सोचते जातिस्मरण होते ही उसको सर्प का अपना पूर्व भव याद आया। उसने नीचे उतरकरसाधूमहाराज को वंदन किया।वैराग्य उत्पन्न होने से दीक्षा लेने के लिये भी तैयार हुआ। मातापिताने उसे बड़ा समझाया पर किसीकी बात न मानते हुए महाप्रयास से उनकी आज्ञा लेकर उसने सद्गुरुसे दीक्षा ग्रहण की। वह तिर्यंच योनि से आया होने के कारण, वेदनीय कर्म का उदय होने से वह भूख सहन नहीं कर पाता था। इस कारण एक पोरसी मात्र का भी पच्चकखाण उससे नहीं जिन शासन के चमकते हीरे • ३०९
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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