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सबसे बड़ी समुद्र बोली, 'हे स्वामी! पुण्य से प्राप्त हुई इस लक्ष्मी का त्याग करके आप चारित्र लेना चाहते हैं?' जंबूकुमार ने जवाब दिया कि 'बीजली की तरह चंचल लक्ष्मी का क्या विश्वास ? इसलिये हे प्रिये ! उस लक्ष्मी को छोड़कर मैं दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ। तत्पश्चात् दूसरी पद्मश्री ने कहा, 'छ: दर्शनों का मत ऐसा है कि दानादिक धर्म से उपकारी होने के लिये गृहस्थाश्रमी का धर्मश्रेष्ठ है। कहा है कि इस दानादिक गृहस्थियों का धर्म दोनों भव में हितकारी होने से धीर पुरुष पालन करते हैं और कायर मनुष्य उसे छोड़ देते हैं।' जंबू ने कहा, 'सावद्य की पापयुक्त क्रियाओं का सेवन करने से गृहस्थधर्म किस प्रकार श्रेष्ठ कहा जायेगा? कारण गृही और मुनि के धर्म में मेरु और सरसव तथा सूर्य एवं खद्योत जितना अंतर है।'
तत्पश्चात् तीसरी पद्मसेना ने कहा, 'कदली के गर्भ जैसा कोमल आपका शरीर संयम के कष्ट सहन करने योग्य नहीं है।' जंबू ने कहा, 'अरे ! कृतघ्नी
और क्षणभंगुर ऐसे इस देह पर बुद्धिमान पुरुष किस प्रकार प्रीति करेगा?' ' चौथी कनकसेना बोली, 'पूर्व जिनेश्वरों ने भी प्रथम राज्य का पालन करके संसार के भोग भोगने के बाद व्रत ग्रहण किया था। तो आप क्या नये मोक्ष की कामनावाले हुए हो?' जंबू ने कहा, 'जिनेश्वर अवधिज्ञानवाले होने से वे अपने व्रत योग्य समय को पहचानते हैं; सो हाथी के साथ गधे की भाँति उनके साथ हमारे जैसे सामान्य मनुष्यों की क्या स्पर्धा? प्राणियों के जीवितरूपी महा अमूल्य रत्न का कालरूपी चोर आकस्मिक आकर मूल में से ही चोरी कर लेता है, इसी कारण समझदार पुरुष संयमरूपी पाथेय लेकर, उसके सहारे मोक्ष पुरी को प्राप्त करते हैं कि जहाँ इस कालरूपी चोर का जरा सा भी भय नहीं रहता।'
तत्पश्चात् पांचवीं नभसेना बोली, 'हे प्राणनाथ! इस प्रत्यक्ष और स्वाधीन ऐसे कुटुम्ब का सुख प्राप्त हुआ है, उसे छोड़कर देह बिना के सुख की (मोक्ष सुख की) क्यों इच्छा रखते हो?' जंबू ने जवाब दिया, 'हे प्रिया! क्षुधा, तुषा, मूत्र, युरीष और योगादिक से पीडा पाते इस मनुष्य देह में इष्ट वसु के समागम से भी क्या सुख है? कुछ नहीं।'
छठ्ठी कनकश्री ने पूछा, 'प्रत्यक्ष सुख पाया फिर भी उसे छोड़कर परोक्ष सुख की बातें करनी बेकार है। भोग की प्राप्ति के लिये व्रत ग्रहण करना,
जिन शासन के चमकते हीरे • २७९