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गिरेगी तो राजसेवक जो नंगी तलवार के साथ चल रहे हैं वे सिर काट डालेंगे। मरण भय के कारण उन सब आकर्षणों की ओर नजर न डालकर सब जगह घूम कर राजा के पास आया। उसने एक बूंद भी गिराये बगैर का तेल से भरा पात्र राजा को थमाया तब राजा ने हँसकर उसको कहा कि, 'तूं तो कहता है कि यह इन्द्रियाँ और मन अत्यंत चपल होने के कारण किसीसे रूक सकते नहीं हैं । यदि ऐसा है तो तू तेरे मन और इन्द्रियों को किस प्रकार रोक सका?' जय ने जवाब दिया कि महाराज! मरण के भय से मैंने मन और इन्द्रियाँ स्वाधीन रखी थी' तब राजा ने कहा, 'जब एक बार के मरण भय को देखकर तूने तेरा प्रमाद अटकाया, जिससे तूं इन्द्रियाँ और मन को काबू में रख सका; तो अनंता भव के जन्ममरणों के भय को देखकर जैन मुनि अपनी इन्द्रियाँ व मन अपने वश में रखते हैं, उसमें क्या आश्चर्य! जो कहता हूँ वह ध्यान देकर सुन ।'
"यदि इन्द्रियों को वश में न रखी हो तो वह दुःख देनेवाली होती है, इसलिये यदि दुःख से दूर रहना हो तो सब इन्द्रियों को अपने स्वाधीन रखो।
और राग एवं द्वेष पर विजय पायी तो इन्द्रियों पर विजय मानी जायेगी सो हितकारक कार्य में इन्द्रियों को रोकनी नहीं परंतु अहित कार्यों में प्रवर्तक इन्द्रियों को शीघ्र ही रोकनी। संयमधारी पुरुष इसी प्रकार का आचरण करते हैं।' __ राजा के ऐसे हितकारी वचन सुनकर जय सेठ समझ गये। बोध पाकर जैनधर्म का स्वीकार किया। इस तरह कई लोगों को प्रतिबोधित करके पद्मशेखर राजा ने अंत में देवगति पायी।
सकल पदार्थ है जग मोही। कर्म हीन नर पावत नाही।
जिन शासन के चमकते हीरे • २७६