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के बाद ही आहार-पानी करते। ऐसी विद्याओं से उनकी व जैनशासन की बड़ी उन्नति होने लगी और जिससे वे एक बड़े सिद्ध प्रभावक गिने जाते
थे।
विचरते विचरते पादलिप्तसूरी ढाका में पधारे। वहाँ नागार्जुन नामक योगी ने अपने कलाकौशल्य से कई लोगों को मोहित किया था। नागार्जुन योगी आकाशगामीनि विद्या सीखने के लिए कपट से उनका श्रावक बना। वह हररोज वंदन करने के बहाने पैरों का स्पर्श करके सूंघ कर एक एक औषधि पहचान रहा था। इस उसने एकसौं सात औषधियां उसने पहचान ली। वह उनका मिश्रण करके पैर में लेप करके थोड़ा उडता लेकिन मूर्गे की तरह वापिस जमीन पर गिर जाता। रोजाना एक-दो बार उड-उडकर गिर जाता जिससे उसके पैर व घुटने पर कई घाव पड़े। यह देखकर पादलिप्तसूरी ने जब उसको पूछा तब उसने सच बात बता दी। उसकी बुद्धि देखकर गुरु उस पर बड़े प्रसन्न हुए । तत्पश्चात् उसको सच्चा श्रावक बनाकर कहा, 'तुने जो एकसौं सात औषधि मुझ से छिपकर सीखी वह तो सब सही और बराबर है लेकिन सब सामग्री एकत्र करके साठी चावल के धोवन में मिलाकर पैर पर लेप करे तो ठीक तरह से उडा जा सकता है। यह बात उसने बराबर समझकर उस अनुसार किया और वह आकाशगामीनी विद्या सीख गया।
यह सीखने के बाद नागार्जुन को स्वर्णसिद्धि साधने की इच्छा हुई जिससे उसके पीछे पड कर वह भी प्राप्त कर ली। इस मिश्रण के बावन तोले सिर्फ एक रती पत्थर या लोहें पर गिरते ही सोना बन जावे ऐसे कोटी वैद्य रस की एक बोटल तैयार करके अपने शिष्य के साथ अपने गुरु श्री पादलिप्ताचार्य को उपहार स्वरूप भेजी। गुरु महाराज ने बोटल हाथ में लेकर कहा, 'हमें तो सुवर्ण या कंकर दोनों ही समान है। इसलिये हमें इसकी कोई जरूरत नहीं है। यह तो अनर्थ का हेतु है इसलिये हम इसे रखनेवाले नहीं है। हमें यह शीशा भेजा ही क्यों? ऐसा कहकर उस मिश्रण को राख के कुण्ड में फेंक दिया और खाली हुए उस शीशे में अपना पेशाब भर कर नाराजगी दिखाते हुए भेज दिया। उस शिष्य ने नागार्जुन के पास जाकर घटना कह सुनाई। इससे नागार्जुन को बड़ा गुस्सा आया और बोला, 'अरे! गुरु इतने अधिक अविवेकी | है कि कोटि वेध रस को अपने पेशाब के बराबर माना।' ऐसा कहकर वह
जिन शासन के चमकते हीरे • २७१
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