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________________ की सुदर्शन के साथ सम्बन्ध बनाने की बात कह सुनाई। रानी ने कहा, 'तेरे साथ ऐसा हुआ? यदि तू कहती है ऐसा सचमुच बना है तो तू धोखा खा गई है। सुदर्शन व्यंढल है लेकिन परस्त्री के लिए, स्वस्त्री के लिए तो भरपूर पुरुषत्ववाला है।' ऐसा सुनकर कपिला को अत्यंत खेद हुआ। उसके दिल में ईर्ष्या जाग उठी। उसने अभया को कहा, 'मैं तो मूढ़ हूँ इसलिए धोखा खा गई पर आप तो बुद्धिशाली हैं। आप में कुशलता हो तो आजमाइये और सुदर्शन के साथ भोग कीजिये।' अभया ने गर्व से कहा, 'मुग्धे! राग से मैने जो हाथ पकड़ा तो पत्थर भी पिघल जाता है तो संज्ञावान् पुरुष के लिए तो कहना ही क्या? चालाक रमणीओं ने तो कठोर वनवासियों व तपस्वियों को भी फंसाया है तो यह तो मृदु मनवाला गृहस्थ है।' ईर्ष्या से जलती कपिला ने कहा, 'देवी! ऐसा गर्व न करो! यदि ऐसा ही अभिमान है तो सुदर्शन के साथ खेलो।' कपिला के ऐसे कथन से अभया का गर्व बढ़ गया। उसने कहा, 'ऐसी बात है! तो तू समझ ले कि मैं सुदर्शन के साथ खेल चुकी।' इतना कहकर अहंकार के आवेश में होश खोकर अभया ने प्रतिज्ञा ली, 'सुदर्शन के साथ यदि मैं रतिक्रीडा न कर पाऊँ और यदि उसे फँसा न लूं तो मैं अग्नि में प्रवेश करूंगी।' रानी अभया ने अपने महल में जाकर यह कूट प्रतिज्ञा की बात साथ मैं रहती पण्डिता नामक धावमाता को बताई। धावमाता ने उसको कहा, 'तूने यह ठीक नहीं किया। तूझे महान आत्माओं की धैर्यशक्ति की खबर नहीं है । साधारण श्रावक भी परनारी का त्यागी होता है, यह तो महासत्त्व शिरोमणि सुदर्शन के लिए तेरी धारणा अनुसार बनना लगभग असंभव है। गर्विष्ठ अभया ऐसा समझ सकनेवाली न थी। वह बोली, 'कुछ भी करके-येनकेन प्रकारेण सुदर्शन को एक बार मेरे आवास में ले आओ। बाद में मैं सबकुछ संभाल लूंगी।' पण्डिता आखिर थी तो एक नौकरानी ही और इससे उसकी ताबेदार ही थी। ‘पण्डिता ने कहा, 'मुझे एक ही मार्ग ठीक लगता है। उसे समझा-बहकाकर तो यहाँ नही लाया जा सकता। वह जब पर्व के दिन शून्य घर आदि में कायोत्सर्ग करता है, सिर्फ उसी वक्त उसे उठा लाना चाहिये। दूसरा अन्य कोई उपाय दिखता नहीं है।' रानी ने भी कहा : वही ठीक है, तू ऐसा ही करना!' शहर में कौमुदी महोत्सव का समय आया। इस महोत्सव को देखने हरेक को आना होगा - ऐसा राजा का फरमान निकला। उस दिन धार्मिक पर्व होने से जिन शासन के चमकते हीरे • १२५
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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