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वह बोला, 'हे मुनिश्वर! जल्दी से मुझे धर्म कहिये, नहि तो मैं इस स्त्री के मस्तिष्क की भाँति आपका मस्तिष्क भी उडा दूंगा।' मुनि को कुछ पात्रता ठीक लगी इसलिये उन्होंने 'उपशम् - विवेक - संवर' इन तीन पदों का उच्चारण किया और आकाशमार्ग से चल दिये। चिलातीपुत्र ने सोचा, 'मुनि ने आकाशगामिनी विद्या का उच्चारण किया या कुछ मंत्राक्षर कहे? या कोई धर्ममंत्र कहा?' ऐसे चिंतन करके वह मुनि की जगह खड़ा रहा और वह उपशम विवेक और संवर इन तीन पदों का ध्यान धरने लगा। वह ध्यान के साथ सोचता गया कि इन तीन शब्दों का अर्थ क्या? सोचते सोचते उसने अपने आप उपशम् शब्द का अर्थ बिठाया कि 'उपशम याने क्रोध की उपशांति, क्रोध का त्याग।' ऐसा सोचकर उसने उपशम का आचरण किया। विवेक शब्द का अर्थ सोचते हुए उसने समझा कि 'करने योग्य हो, उसको ही ग्रहण करो
और न करने योग्य हो उसका त्याग करना याने विवेक।' ऐसा समझकर उसने विवेक का ग्रहण किया। अन्त में संवर शब्द का अर्थ भी वह समझा कि 'पांच इन्द्रियों के जो तफान है उसका निरोध अर्थात पांच को उनके विषय में जाती हुई रोकना उसका नाम है संवर।' यह अर्थ समझकर उसने संवर का भी प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार वह चिलातीपुत्र उस त्रिपदी का ध्यान धरते हुए वहीं कायोत्सर्ग में रहा। उसका पूरा शरीर खून से सराबोर था। उसकी गंध से सूई समान मुखवाली (शुचिमुखी) चींटीया आकर काटने लगी। काटते काटते असंख्य चींटियों ने उसका शरीर छलनी जैसा कर डाला। उसने सर्व वेदना धीरजपूर्वक सहन की और ढाई दिन में उसकी मृत्यु होते ही वह स्वर्ग में गया।
इस प्रकार सिर्फ ढाई दिन के उपशम्, विवेक और चींटियों के दंश की असह्य पीड़ा शांत चित्त से सहन करके चिलातीपुत्र स्वर्ग पधारे। ऐसे चिलाती को हमारे लाख लाख वंदन...
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सूने होंगे, पूजे होंगे, निरखे होंगे किसी पल में, हे जगतबंधु चित्त में धरे नहीं भक्ति से, जन्मा प्रभु इस कारण से दुःखदायी संसार में, हाँ भक्ति वह फलती नहीं है जो भाव शून्याचार में।
जिन शासन के चमकते हीरे . १०६