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(अन्य ग्रन्थों में ऐसी बात है कि. मेरे जैसी कोई अन्य सती होगी वह दरवाजा खोलेगी - ऐसा कहकर वह दरवाजा बंद रखा और कथा लिखनेवाले के समय भी बंद था) सुभद्राने चौथे द्वार पर जाकर 'हे परमात्मा मेरी लाज रखना, मैने पति के सिवा अन्य किसी के बारे में मन से भी न सोचा हो या अपवित्र न बनी हो तो जल छिडकते ही द्वार खुल जाय' - ऐसे भाव से पानी छिड़का और चौथा दरवाजा भी खुल गया।
सुभद्रा के ससुरालवाले, सास, श्वसुर, उसका भरथार वगैरह सुभद्रा सती की क्षमा माँगकर बोले, 'धन्य सती, धन्य! तेरे जैसी सती वाकई मैं गांव में अन्य कोई नहीं है।'
साधु की आँख में से करूणा भाव से तिनका किस प्रकार निकाला था वह सुभद्रा ने समझाया और सबको समकित बनाने के एकमात्र आशय से जैनधर्म समझाया। अंत में सती सुभद्रा ने दीक्षा लेली। कर्मों का नाश करके केवलज्ञान पाकर मुक्तिपुरी में पधारी।
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तेरे
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ॐ
कोई किसिका नहीं.. कोई किसीका नहीं है रे, कोई किसीका नहीं है,
नाहक रहे हैं सब मथ मथ रे... कोई...१ मनने माना था ये सब मेरे, जान ले प्राणी नहीं कोई तेरे,
ज्ञानी गये हैं सब कह कर रे... कोई...२ यह पुत्र है, यह मेरा तात है, - यह मेरी नारी, और यह मेरी माता है,
नाहक रहे हैं सब मथ मथ रे... कोई...३ कोई गया, कोई जायेगा. कोई नहीं यहाँ रह पायेगा,
क्यों रहे सब यहाँ लचलच रे... कोई...४ इसलिये स्वीकारो शरण सच्ची दुनिया की छोड़ो शरण कच्ची
भजो वीतराग को मथ मथ रे... कोई.५ ---------- जिन शासन के चमकते हीरे . ८९
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