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अभिनंदन
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परमपूज्य गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् विजय जयघोष
__सूरीश्वरजी महाराज साहब की तरफ से ! इस आलेखन में धर्मकथानुयोग का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन महान जैनाचार्यों में आर्यप्रजा के नैतिक, धार्मिक आदि सर्वांगीय उत्कर्ष के लिये जिन कथाओं का उपदेश किया है, उसका जोह विश्व के समग्र साहित्य में नहीं मिलेगा। कथा साहित्य ऐसा है कि जिसमें पंडित-विद्वान, बाल-युवा-प्रौढ़ सभी को अमाप रस होता है। परंतु जिन कथाओं में से आत्मकल्याण सिद्ध हो सके ऐसा तत्त्व उपलब्ध न हो ऐसी श्रांगारिक या जासूसी कथाएँ व्यथा की गठरी के सिवा और कुछ नहीं देती। खून या बलात्कार, आक्रमण या लूटमार अथवा ढिसूम-ढिसूम जैसी हल्की से हल्की मनोवृत्तियों का पोषण करनेवाली कथाओं की रचना कथाकार के लिये कलंकरूप है। जिससे विकट मानसिक अशांति खडी हो जाय, मन तथा शरीर के स्नायुओं में व्यर्थ तनाव (Tension) या व्यग्रता पैदा हो अथवा मन में हल्के गंदे अश्लील विचारों का ज्वार उठे - ऐसी कथाओं के पठन-पाठन पर यदि राज्य की तरफ से प्रतिबंध हो तो राज्य की प्रजा जरूर सत्त्वशील बने। परन्तु अभी तो ऐसी आशा रखनी ही व्यर्थ हैं क्योंकि लोकमानस को गंदा-हल्का-सत्त्वहीन बनाने वाला कथा साहित्यथोकबंद छपकर बाहर आ रहा है। ऐसे समय में ऐसे श्रेष्ठ कथा साहित्य की जिससे सुसंस्कारों का सिंचन और पोषण हो, आत्मा को स्वतत्त्व की सच्ची समझ आवे, परमात्मा के प्रति आदर भक्ति सम्मान जाग्रत हो, धर्म की साधना में एवं नैतिक प्रामाणिकता वगैरह में वृद्धि हो एवं जीव मुक्ति की दिशा में अग्रसर बने ऐसे कथा साहित्य की अत्यंत आवश्यकता है।
_ विशेष रूप से इस पुस्तक में बालकों, युवकों तथा सरल जीवों में सद्गुण और सुसंस्कारों का पोषण हो ऐसी जैन शासन की रुचिकारक अनेकानेक कथाओं का संग्रह हुआ है, जो जैन शासन की गौरवगाथा बालकों को परिचित कराने में अपना महत्त्वपूर्ण भाग अदा करेगी। ऐसे सुन्दर कथा ग्रंथ का संकलन एवं प्रकाशन करने के लिये बैंगलोर निवासी सुश्रावक वरजीवनदासभाई को अन्तर से अभिनंदन !
आचार्यदेव श्रीमद् विजयजयघोष सूरीश्वरजी की ओर से
जयसुन्दर विजय का धर्मलाभ