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________________ श्री उपदेश माला गाथा ३१ ब्रह्मदत्तची की कथा निकला और उसने सोये हुए भाई के पैर में डंक मारा। देवयोग से दूसरा भाई उस समय वहाँ आ पहुँचा। उसने डंक देते देख सर्प को गाली दी-"अरे दुरात्मन्! मेरे भाई को मारकर तूं कहाँ जायेगा?" यह सुनते ही सर्प ने क्रोध से उछलकर उसे भी डस लिया। थोड़ी ही देर में जहर शरीर में फैल जाने से दोनों भाई मर गये। दूसरे जन्म में कालिंजर पर्वत के निकटवर्ती प्रदेशवासी एक हिरनी की कुक्षि से मृग रूप में दोनों उत्पन्न हुए। उन दोनों में यहाँ भी परस्पर बहुत स्नेह था। एक बार किसी शिकारी ने उन दोनों को बाण-प्रहार से मार दिया। अतः मरकर तीसरे भव में उन्होंने गंगानदी के तटवर्ती एक हंसनी की कुक्षि से हंस की योनि में जन्म लिया। वहाँ भी उनमें परस्पर अत्यन्त परम स्नेह था। गंगा के किनारे कमल की डंडियों का आहार करते सुख पूर्वक समय व्यतीत कर रहे थे। किसी शिकारी ने वहाँ अपना जाल बिछाया। हंसयुगल उनके जाल में फंस गया। शिकारी ने दोनों को पकड़ा और मार डाला। चौथे भव में साधुवेष की निंदा के फलस्वरूप उन्होंने काशीदेश में किसी चांडाल के घर पुत्र रूप में जन्म लिया। चांडाल ने बहुत-सा धन खर्चकर जन्मोत्सव किया और दोनों का नाम क्रमशः चित्र और संभूति रखा। पूर्वजन्म के स्नेह के कारण उनमें परस्पर में अतीव राग था। एक क्षण भी वे एक दूसरे का वियोग सहन नहीं कर सकते थे। उस समय उस नगर के राजा का नमुचि नाम का एक प्रधान था। वह राजा का परम विश्वासपात्र था। किन्तु वह दुराचारी था। उसका राजा की पटरानी के साथ गुप्त रूप से प्रेम था और उसके साथ व्यभिचार सेवन करता था। पटरानी भी उसके मोह में फंसी हुई थी। वह भी अपने पति की अवगणना कर नमुचि के साथ कामसुख भोग रही थी। सच है, कामान्ध मनुष्य कुछ नहीं देखता। कहा है दिवा पश्यति नो घूकः, काको नक्तं न पश्यति । अपूर्वः कोऽपि कामान्धो, दिवा नक्तं न पश्यति ॥२७|| अर्थात् - उल्लू दिन में नहीं देखता। कौआ रात को नहीं देखता। परंतु कामान्ध तो अपूर्व अंधा है, जो न दिन में देखता है, न रात में ॥२७॥ इसीलिए कामवासना में मदान्ध रानी से ऊबकर भर्तृहरि योगी ने निम्नोक्त उद्गार प्रकट किये थेयां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, साऽयन्यमिच्छति जनं, स जनोऽन्यसक्तः। अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, धिक् तां च मदनं च इमां च मां च ॥२८॥ अर्थात् - जिस स्त्री को मैं चाहता हूँ, वह स्त्री मुझ में खुश नहीं है, वह किसी अन्य पुरुष को चाहती है। और जिस पुरुष को वह चाहती है, वह - 63
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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