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श्री उपदेश माला गाथा २६-२८
स्वच्छन्दमति अभिमानी की दशा मुमुक्षुजीव को धर्म-कार्य में विनय करना चाहिए, अहंकार नहीं ॥२५।।
अब अपनी स्वच्छन्दबुद्धि से चलने वाले अभिमानी की दशा बताते हैं
निअगमइविगप्पिय-चिंतिएण, सच्छंदबुद्धिरइएण । __ . कत्तो पारत्तहियं, कीरइ गुरु-अणुवएसेणं ॥२६॥
शब्दार्थ - गुरु के उपदेश को अयोग्य समझने वाला, अपनी स्वच्छन्द बुद्धि से कल्पना करके विचरने वाला और स्वतन्त्र बुद्धि से चेष्टा करने वाला जीव अपना पारलौकिक हित कैसे कर सकता है?।।२६।।
भावार्थ - भारी कर्मों के कारण जो जीव गुरुमहाराज के उपदेश को अयोग्य समझता है, आगम, पूर्वाचार्य आदि के विचारों को निरर्थक समझकर छोड़ देता है और बौद्धिक कल्पना से विचार करता है तथा अपनी स्वच्छन्द बुद्धि से आचरण करता है; उस मनुष्य का परलोक में हित कैसे हो सकता है? कदापि नहीं हो सकता ॥२६।।
थद्धो निरुवयारी अविणिओ, गविओ निरुवणामो । साहुजणस्स गरहिओ, जणे वि वयणिज्जयं लहइ ॥२७॥
शब्दार्थ- स्तब्ध (अक्कड़) निरुपकारी, अविनीत, गर्वित, किसी के सामने नमन न करने वाला पुरुष, साधुजनों द्वारा निन्दित है और आम जनता में भी वह निन्दनीयता पाता है ।।२७।।
. भावार्थ - अक्कड़पन में रहने वाला अभिमानी, किसी के द्वारा किये गये उपकार को न मानने वाला कृतघ्न, अपने से बड़े, पूज्य, गुरुदेव आदि को आसन न देने वाला अविनीत, अपने गुणों का अपने ही मुंह से बखान करने वाला गर्वित, गुरु आदि को भी नमस्कार नहीं करने वाला पुरुष साधुजनों में भी निंदापात्र बनता है, और आम लोगों में भी यह दुष्ट-आचरण वाला है, इस प्रकार से उसकी निन्दा (बदनामी) ही होती है। अतः विनीत ही प्रशंसा का पात्र होता है ॥२७॥ . थोवेणवि सप्पुरिसा, सणंकुमार व्य केइ बुझंति ।
देहे खण परिहाणी, जं किर देवेहिं से कहियं ॥२८॥
शब्दार्थ- सत्पुरुष (सुलभबोधि व्यक्ति) सनत्कुमार चक्री की तरह जरासा निमित्त पाकर बोध प्रास कर लेते हैं। सुना है, देवताओं ने सनत्कुमार से इतना ही कहा था कि 'तुम्हारे शरीर का रूप क्षणमात्र में नष्ट हो गया है। इतना-सा वचन ही उनके लिये प्रतिबोध का कारण बना।' ।।२८।।
यहाँ प्रसंगवश सनत्कुमार की कथा कहते हैं
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