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________________ श्री उपदेश माला गाथा २५ बाहुबलि का दृष्टांत भरतचक्री की आँखों में पहले आँसू आ गये। साक्षीभूत देवताओं ने फैसला दिया" चक्री हारा और बाहुबलि जीता।" इसी तरह पाँचों युद्धों में बाहुबलि जीता। भरत ने अपनी हार होने से झुंझलाकर युद्ध मर्यादा छोड़कर चक्र छोड़ा। तब बाहुबलि ने कहा- " भाई ऐसा मत करो। सत्पुरुषों को मर्यादा का अतिक्रमण करना योग्य नहीं है।" इतना कहने के बावजूद भी भरत ने चक्र छोड़ा। बाहुबलि ने मुष्टि उठाकर विचार किया कि 'इस मुष्टि से चक्रसहित भरत को चूर्ण कर दूं। इतने में तो चक्र बाहुबलि के पास आकर तीन प्रदक्षिणा देकर वापिस लौट गया, क्योंकि सगोत्र पर चक्र नहीं चलता । बाहुबलि ने फिर सोचा - "वज्र जैसी मुष्टि से मिट्टी के बरतन के समान अभी भरत को चूर-चूर कर देता हूँ !" किन्तु तत्क्षण उज्ज्वल विचार आया- "अहा ! केवल अपने सुख के लिए बड़े भाई को मारने के लिए मैं उतारू हो गया? इस कुविचार और तदनुरूप आचरण का कितना बुरा परिणाम आता ! जिसका अंत नरकगमन हो, ऐसे राज्य को धिक्कार है! धिक्कार है विषयों को' ! मेरे छोटे भाईयों को धन्य है, जिन्होंने अनर्थ के कारणभूत इन राज्यों को छोड़कर मोक्षराज्य पाने के लिए संयम ग्रहण कर लिया है।" इन सब बातों को सोचते-सोचते बाहुबलि के हृदय में वैराग्य की ज्योति जग उठी। फल स्वरूप उसी मुष्टि से बाहुबलि ने अपने सिर के केशों का पंचमुष्टि लोच कर लिया। देव ने उन्हें रजोहरण आदि मुनिवेष दिया। इस प्रकार बाहुबलि स्वयं चारित्र अंगीकार करके मुनि बन गये। भरत ने जब यह सुना और मुनिवेष में अपने भाई को देखा तो वह अपने अकृत्य से लज्जित होकर पश्चात्ताप करने लगा। उसकी आँखों में आँसू उमड़ पड़े और बाहुबलि मुनि के पास आकर अश्रुपात करते हुए उसने सपश्चात्ताप विनम्र निवेदन किया- "मुनिवर ! धन्य हैं आपको! आपने मुनि वेष धारण कर लिया। धिक्कार है मुझे कि मैंने आपको अपने स्वार्थवश बहुत हैरान किया। मेरा सब अपराध क्षमा करें और यह राज्यलक्ष्मी ग्रहण करें।" बाहुबलि मुनि बोले - " भरतजी ! यह राज्य, वैभव, भोग-विलास आदि सभी अनित्य हैं ! यौवन भी टिकने वाला नहीं। शरीर भी नाशवान और ये विषय बार-बार दुःख देने वाले हैं। तब भला मैं नाशवान और अस्थायी राज्यलक्ष्मी तथा उससे सम्बन्धित विषयभोगों को कैसे स्वीकार कर सकता हूँ? मैं तो आपसे भी यही कहता हूँ कि आप इनमें आसक्त न हों।'' यह उपदेश सुनकर भरत चक्रवर्ती को भी कुछ-कुछ विरक्ति हो चली। भरत उन्हें वंदना करके और बाहुबलि का राज्य उनके पुत्र सोमयश को देकर 1. न मातरं न पितरं न स्वसारं न सोदरं, गुणै संपश्यति तथा, विषयान विषयी यथा || १ || • हेयोपदेया टीका पृष्ठ १२६ > 55
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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