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________________ बाहुबलि का दृष्टांत श्री उपदेश माला गाथा २५ इच्छा नहीं है। सिर्फ एक बार वह मेरे पास आ जाय, इसके लिये आप मेरे छोटे भाई को समझाइए।" भरत की यह बात सुनकर इन्द्र बाहुबलि के पास पहुँचा। बाहुबलि ने उनका बहुत सत्कार-सम्मान किया और पूछा- "स्वामिन्! आज आपका यहाँ कैसे पधारना हुआ? मेरे लिये क्या आदेश है?' इन्द्र ने कहा-'पिता के तुल्य अपने बड़े भाई के साथ तुम जो युद्ध कर रहे हो; क्या यह तुम्हें ठीक लगता है?' मेरी यह नम्र राय है कि तुम उसके पास जाकर नमस्कार करके अपराध की क्षमा मांगो और इस नरसंहार से निवृत्त हो।' बाहुबलि ने कहा- "इन्द्र! इसमें दोष मेरा नहीं, परंतु भरत का है। उसे यहाँ सेना लेकर किसने बुलाया था? वह यहाँ युद्ध के सिवाय और किसलिए आया है? वह राज्य का भूखा है। उसे लज्जा नहीं आती कि अपने ९८ छोटे भाईयों का राज्य हड़पकर अब मेरा राज्य छीनने के लिए यहाँ आया है। परंतु उसे पता नहीं है कि “यन्नहि सर्वेषु बिलेषु मूषका एव" सभी बिलों में चूहे नहीं रहते, किसी में सर्प भी रहता है।" अतः मैं उससे किसी कदर अब पीछे हटने वाला नहीं। मानहानि से प्राणहानि श्रेष्ठ है। कहा भी है अधमा धनमिच्छन्ति, धनमानौ च मध्यमाः । उत्तमा मानमिच्छन्ति, मानो हि महतां धनम् ॥२२॥ अर्थात् - अधम मनुष्य धन की इच्छा करता है, मध्यम मनुष्य धन और सम्मान की और उत्तम मनुष्य सिर्फ सन्मान की ही इच्छा करता है। क्योंकि सम्मान ही महान् पुरुषों का धन है ॥२२॥ और भी कहा है . वरं प्राणपरित्यागो, मा मानपरिखण्डनम् ।। __ मृत्योस्तत्क्षणिका पीड़ा, मानखण्डे दिने-दिने ॥२३।। अर्थात् - प्राण त्याग कर देना अच्छा, परंतु मान खण्डन होने देना अच्छा नहीं। मृत्यु तो उसी समय पीड़ा देती है, मगर मान हानि प्रतिदिन पीड़ा देती रहती है ॥२३॥ . इस तरह बाहुबलि के निश्चय वचन सुनकर इन्द्र ने कहा-"यदि ऐसा ही निश्चय है तो तुम दोनों भाईयों को ही युद्ध करना चाहिए। इस जनता का संहार क्यों कराते हो? तुम दोनों ही परस्पर युद्ध करके हारजीत का फैसला कर लो।" बाहुबलि इस बात को मान गया। इन्द्र ने दृष्टियुद्ध, वाग्युद्ध, बाहुयुद्ध, मुष्टियुद्ध और दण्डयुद्ध इन पाँच प्रकार के युद्ध करने की व्यवस्था और सलाह दी। भरत ने भी इसे कबूल किया। दोनों भाई सेना छोड़कर आमने-सामने आ गये। सर्वप्रथम दृष्टियुद्ध प्रारम्भ हुआ। परस्पर दृष्टि से दृष्टि मिलाते हुए 54
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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