________________
श्री उपदेश माला गाथा ४८३-४८४
अंगसंगोपनकर्ता कछुए का दृष्टांत शिथिल होने के पश्चात् उसे संयम में उद्यम करना दुःख कर लगता है। इसीलिए शिथिलता प्रवेश होने के साथ ही उसे फौरन निकाल देनी चाहिए ।।४८२।।
जइ सव्वं उवलद्धं, जड़ अप्पा भाविओ उसमेण ।
कायं वायं च मणं, उप्पहेणं जह न देई ॥४८३॥
शब्दार्थ - ऐ भव्यजीव! यदि तुमने पूर्वोक्त समस्त सामग्री प्रास की है और आत्मा को उपशमभाव से सुसज्जित कर लिया है तो अब ऐसा उपाय करो, जिससे तुम्हारा शरीर, मन और वचन प्रमादवश उन्मार्ग पर न चला जाय ।।४८३।।
हत्थे पाए न खिव्वे, कायं चालिज्ज तं पि कज्जेण ।
कुम्मु व्य सए अंगम्मि, अंगुवंगाइ गोविज्जा ॥४८४॥
शब्दार्थ- साधक को अपने हाथ-पैर निष्प्रयोजन नहीं हिलाने चाहिए। शरीर को भी तभी चलाना चाहिए, जब ज्ञानादि गुणों का अभ्यास करना हो, गुरुसेवा करनी हो, अथवा अन्य कोई अनिवार्य कारण हो। तथापि जैसे कछुआ अपने अंगों को अंदर ही सिकोड़ लेता है, वैसे ही साधक को अपने समस्त अंगोपांगों को सिकोड़कर उनका संगोपन (सुरक्षण) करना चाहिए ।।४८४।। इस संबंध में कछुए का दृष्टांत देकर समझा रहे हैं
अंगसंगोपनकर्ता कछुए का दृष्टांत वाराणसी नगरी में गंगानदी के पास ही मृद्गंग नामक एक बड़ा सरोवर था। उसके निकट ही मालुयाकच्छ नाम का बड़ा भारी एक जंगल था। उसमें दो दुष्ट गीदड़ रहते थे। वे बड़े प्रचंड और भयंकर क्रूरकर्मा थे। एक दिन उस सरोवर में से दो कछुए बाहर निकले। दुष्ट गीदड़ उन्हें देखते ही मारने के लिए झपटे। पापी गीदड़ों को अपनी ओर आते देखकर फौरन उन दोनों कछुओं ने अपने अंग अंदर सिकोड़ लिये। गीदड़ों ने उन दोनों को पैरों से इधर-उधर घसीटा, ऊंचा-नीचा किया, पछाड़ा, नखों से कुरेदा और मारने के लिए बहुत पैर पीटे। मगर कछुए टस से मस न हुए, उन्होंने अपना एक भी अंग जरा-सा भी बाहर नहीं निकाला। इसीलिए दोनों कछुओं का वे दुष्ट गीदड़ कुछ भी बिगाड़ न सके। निरुपाय होकर वे कपटी गीदड़ वहीं नजदीक ही कहीं छिपकर बैठ गये। कुछ ही देर बाद एक कछुए ने इस विचार से कि शायद अब गीदड़ चले गये हैं, अपने अंग बाहर निकाले। दुष्ट गीदड़ ने जब उस कछुए को अंग बाहर निकालते देखा तो उन्होंने एकदम झपटकर उसकी गर्दन पकड़ी और उसे जमीन पर पटककर नखों से नोच
401