________________
प्रमाद त्याग
श्री उपदेश माला गाथा ४८०-४८२ शब्दार्थ - वे दिन, वे पक्ष, वे मास या वे वर्ष निरर्थक गिने जाते हैं, जो धर्माचरण के बिना बीते हों। परंतु जो दिन-मासादि धर्माचरण-मूलगुण-उत्तरगुण रूप धर्म-की निरतिचार आराधना पूर्वक बीते हों, वे ही सार्थक गिने जाते हैं। मतलब यह है कि जो समय धर्मयुक्त बीते वही सार्थक है, चाहे वह थोड़ा ही क्यों न हो। बाकी का सारा समय निरर्थक है ।।४७९।।
जो नयि दिणे-दिणे संकलेइ, के अज्ज अज्जिया मए गुणा? । अगुणेसु य न य खलिओ, कह सो उ करेइ अप्पहियं? ॥४८०॥
शब्दार्थ-भावार्थ - जो साधक प्रतिदिन इस प्रकार का संकलन विचार नहीं करता कि आज मैंने कौन-से ज्ञानादि गुण प्राप्त किये? किन-किन मिथ्यात्वादि दुर्गुणों से मैं आज स्खलित (लिस) नहीं हुआ? यानी जो अहर्निश इस प्रकार का चिन्तन नहीं करता, प्रमाद और अतिचार रूप अवगुण को नहीं छोड़ता, उसी ढर्रे पर (आचरण पर) चलता रहता है; वह साधक अपना आत्महित कैसे कर सकता है? सतत आत्म-निरीक्षण करने वाला साधक ही स्व-पर हित कर सकता है ।।४८०।।
इय गणियं इय तुलिअं, इय बहुआ दरिसियं नियमियं च । जह तहवि न पडिबुज्झइ, किं कीरउ नूण भवियव्यं ॥४८१॥
शब्दार्थ-भावार्थ - इसी ग्रंथ में पहले अनेक स्थलों पर श्री ऋषभदेव स्वामी और श्री महावीर स्वामी के समान धर्माचरण में पुरुषार्थ करने के, अवंतीसुकुमाल
आदि की तरह प्राणांत कष्ट आ पड़ने पर भी धर्म को नहीं छोड़ने के, और जिनकल्पी के समान चर्या रखने वाले आर्यमहागिरि आदि के दृष्टांत विभिन्न तरीकों से बताये हैं; समिति, गुप्ति, विषय, कषायादि पर विजय आदि के सुफल बताने वाली अनेक युक्तियाँ देकर समझाया है, तथा अनेक प्रकार से सुकर्म-कुकर्म के फल भी प्रदर्शित किये हैं, अधर्म, प्रमाद, पाप आदि के आचरणों के नरकादि दुष्फल बताकर उनसे विरत होने का उपदेश दिया है। फिर भी भारीकर्मा दीर्घसंसारी जीव प्रतिबोधित नहीं होता; उसे यह उपदेश रुचिकर नहीं लगता। लघुकर्मा जीव को ही शीघ्र प्रतिबोध लग सकता है, भारीकर्मा को नहीं। अतः उन भारीकर्मा जीवों की ऐसी भवितव्यता समझना ।।४८१।।
किमगं तु पुणो जेणं, संजमसेढी सिढिलीक्या होइ । सो तं चिय पडियज्जड़, दुक्खं पच्छा उ उज्जमइ ॥४८२॥
शब्दार्थ-भावार्थ - जो पुरुष संयमश्रेणी-ज्ञानादि गुणों की श्रेणी को शिथिल करता है, उसकी शिथिलता दिन-ब-दिन अवश्य ही बढ़ती जाती है। और बार-बार
400