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________________ श्री उपदेश माला गाथा ४५८-४५६ जिनाज्ञा आराधक जमाली की कथा जड़ ता तणकंचणलिट्ठरयणसरिसोवमो जणो जाओ । तड़या नणु वोच्छिन्नो, अहिलासो दव्वहरणम्मि ॥४५८॥ शब्दार्थ - जब साधक तिनके और सोने में, पत्थर और रत्न में समान बुद्धि रखता है, उन दोनों में कोई अंतर नहीं देखता, तभी उसके जीवन में परधन हरण की अभिलाषा, लोभ, तृष्णा आदि का विच्छेद हुआ समझो ।।४५८।। आजीवग-गणनेया, रज्जसिरिं पयहिऊण य जमाली । हियमप्पणो करितो, न य ययणिज्जे इह पडतो ॥४५९॥ शब्दार्थ-भावार्थ - राज्यलक्ष्मी का त्याग करके तथा शास्त्रों (सिद्धांतों) का अध्ययन करके भी भगवान् महावीर के दामाद जमाली ने, जो भगवान् महावीर से वेष धारण करके भी बाद में आजीविक-गण (निहव) का नेता बन गया था; आत्महितकारी धर्मानुष्ठान किया होता तो वह इस जगत् में निन्दापात्र न होता। अर्थात्-मिथ्याभिमानवश 'कडेमाणे कडे' इन भगवान् महावीर के सिद्धांतवचनों का उत्थापन करके जमाली जगत् में अति निन्दनीय बना ।।४५९।। प्रसंगवश यहाँ जमाली की कथा दे रहे हैं जमाली की कथा कुण्डपुर नगर में जमाली नामक एक अत्यंत ऋद्धिसंपन्न क्षत्रिय रहता था। यौवन-अवस्था में पहुँचते ही श्रीमहावीर स्वामी की पुत्री सुदर्शना के साथ उसने विवाह किया। और भी कई राजकन्याओं के साथ उसका विवाह हुआ। सांसारिक सुखों का उपभोग करता हुआ वह आनंद पूर्वक जीवन बिता रहा था। ऐसे ही समय में भगवान् महावीर स्वामी का वहाँ पदार्पण हुआ। जमाली भगवान् महावीर के दर्शनार्थ पहुँचा। भगवान् महावीर का धर्मोपदेश सुनकर उसे वैराग्य हो गया। संसार की असारता जानकर उसने ५०० राजकुमारों के साथ खूब धूमधाम से मुनि दीक्षा अंगीकार की। भगवान् महावीर की पुत्री सुदर्शना ने भी बहुत-सी महिलाओं के साथ दीक्षा ली। भगवान् महावीर ने उसके साथ में दीक्षित ५०० राजकुमारों को जमाली के शिष्य घोषित किये। जमाली ने क्रमशः ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। छट्ठ, अट्ठम आदि विविध तपश्चर्या भी करने लगा। एक बार जमाली मुनि ने भगवान् से पृथक विहार करने की अनुमति मांगी। परंतु उन्होंने उसका भविष्य अंधकारमय जानकर अलग विहार करने की आज्ञा नहीं दी। तब जमाली ने आज्ञा की परवाह न करके ५०० शिष्यों के साथ पृथक् विहार कर दिया। विहार करते हुए जमाली एक बार श्रावस्ती नगरी में पहुँचा। वहाँ नगरी - 391
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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