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जिनाज्ञा आराधक का सुफल विराधक जमाली श्री उपदेश माला गाथा ४५४-४५७
शब्दार्थ - अमृत के समान श्रवण सुखदायी जिनवचनोपदेशामृत की बूंदें पाकर भव्य जीवों को अपना हितकारी धर्मानुष्ठान अवश्य करना चाहिए, और जो अहितकर पापमय कार्य है उनमें चित्त नहीं लगाना चाहिए। काया और वचन को उनमें प्रवृत्त करने की तो बात ही कहाँ? जगत्-हितकर जिनवचन सुनने का यही सार है।।४५३।।
हियमप्पणो करितो, कस्स न होइ गरुओ गुरुगण्णो? । अहियं समायरंतो, कस्स न विप्पच्चओ होइ? ॥४५४॥
शब्दार्थ - अपनी आत्मा के लिए हितकारी धर्मानुष्ठान आदि करने वाले किस मनुष्य का गौरव गुरु के समान गणनापात्र नहीं होता? यानी जो आत्महिताचरण करता है, वह सब जगह प्रतिष्ठा पाता है। और आत्मा का अहित करने वाला कौन मनुष्य अविश्वासपात्र नहीं होता? वह सर्वत्र अविश्वसनीय होता है।।४५४।।
जो नियम-सील-तव-संजमेहिं, जत्तो करेड़ अप्पहियं । ___ सो देवयं व पुज्जो, सीसे सिद्धत्थओ ब्व जणे ॥४५५॥
शब्दार्थ - जो भाग्यशाली नियम, शील (सदाचार), तप, संयम, व्रतप्रत्याख्यान आदि से युक्त होकर आत्मा का हितकारी धर्मानुष्ठान करता है, वह देवता के समान पूजनीय बनता है। संसार में उसे सफेद सरसों की तरह मस्तक पर चढ़ाते हैं। जैसे संसार में लोग सफेद सरसों को अपने मस्तक पर चढ़ाते हैं; वैसे ही उस व्यक्ति की आज्ञा को लोग शिरोधार्य करते हैं ।।४५५।।
सव्यो गुणेहिं गण्णो, गुणाहियस्स जह लोगवीरस्स।
संभंतमउडविडयो, सहस्स नयणो सययमेड़ ॥४५६॥
शब्दार्थ- सभी जीव अपने गुणों से ही माननीय होते हैं। जैसे लोकप्रसिद्ध महावीर स्वामी को सहस्रनेत्र एवं चंचल मुकुटाडंबरधारी इन्द्र सतत वंदन करने आता है। इसीलिए गुणवत्ता ही पूजनीयता का कारण है ।।४५६।।
चोरिक्क-बंचणा-कूडक्वड-पदारदारुणमइस्स । तस्स च्चिय तं अहियं, पुणो वि येरं जणो वहइ ॥४५७॥
शब्दार्थ - चोरी करना, दूसरों को धोखा देना, झूठ बोलना, कपट करना, परस्त्री गमन आदि भयंकर पापकार्यों में जिसकी बुद्धि लगी हुई रहती है, उसके लिए ये पापाचरण अवश्य ही अहितकर हैं, परभव में ये नरक-तिर्यंच-गति के कारण हैं ही इस भव में भी लोग ऐसे व्यक्ति से वैर रखते हैं और यह वैरपरंपरा आगे-से आगे कई जन्मों तक चलती है ।।४५७।।
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