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________________ श्री उपदेश माला गाथा ४४२-४४४ किसका मरना अच्छा, किसका जीना ? मासिक उपवास) आदि लंबी तपश्चर्या से अथवा धर्मपालन के लिए विविध परिषहों आदि के सहन के कारण भलीभांति काया को विविध क्लेश देने से इस लोक में सुख का अभाव रहता है, मगर उसके लिए एक परलोक (जन्म) अच्छा रहता है। क्योंकि उसे आगामी जन्म में परलोक के रूप में अपने तप आदि देह दमन के फल स्वरूप देवलोक के सुख या राज्यादि सुख प्राप्त होते हैं । । ४४१ । । नरयनिरुद्धमईणं, दंडियमाईण जीवियं सेयं । बहुवायम्मि वि देहे, विसुज्झमाणस्स वरमरणं ॥ ४४२ ॥ शब्दार्थ - नरक-तिर्यंच आदि नीचगति के योग्य काम करने वाले राजा, मंत्री आदि मनुष्यों के लिए इहलोक (यह मनुष्यलोक) अच्छा है, क्योंकि यहाँ तो उन्हें पूर्वजन्म के पुण्यफल स्वरूप सभी सुखसाधन मिले हैं, परंतु अगर वे इन सुख साधनों में लुब्ध होकर धर्माचरण करना भूल जाते हैं, तो परलोक में उन्हें अवश्य ही नरकादि गतियाँ मिलेगी। जहाँ उन्हें बध बंधन मारपीट, डांट, फटकार आदि यातनाएँ मिलेंगी। इसीलिए ऐसों के लिए परलोक अच्छा नहीं। परंतु जो सुख साधन संपन्न पुरुष शरीर में उत्पन्न आधि, व्याधि को सहन करते हैं, धर्माचरण में प्रमाद नहीं करते; जिसके कारण अंतिम समय में उनका ध्यान विशुद्ध रहता है, उनका मरना और परलोक जाना कल्याणकारी है, क्योंकि उन्हें वहाँ सद्गति और सुख मिलेंगे ।।४४२।। 2 तयनियमसुट्ठियाणं, कल्लाणं जीवियं पि मरणं पि । जीवंति जड़ गुणा, अज्जिणंति सुग्गइं उविंति मया ॥४४३ ॥ शब्दार्थ - बारह प्रकार के तप, जप, नियम, व्रत और संयम धर्म की जो भलीभांति आराधना करते हैं, उनका जीना और मरना दोनों कल्याणकारी हैं। क्योंकि अगर धर्मात्मा पुरुष (साधु-श्रावक आदि) जीते रहेंगे तो भी वे धर्म वृद्धि करेंगे और अधिक गुणों का उपार्जन करेंगे और मरने के बाद भी परलोक में स्वर्ग-मोक्षादि सद्गति अवश्य प्राप्त करेंगे ।। ४४३ ।। अहियं मरणं अहियं च जीवियं पावकम्मकारीणं । तमसम्म पडंति मया, वेरं व ंति जीवंता ॥ ४४४ ॥ शब्दार्थ रात-दिन पापकर्म करते रहने वाले व्यक्ति का मरना भी अहितकर और जीना भी अहितकर। क्योंकि मरने के बाद ऐसे जीव घोर- तामस-रूप नरक में जाते हैं और जीते रहते हैं तो भी वे अनेक जीवों का संहार करके वैरभाव बढ़ाते हैं ।। ४४४ ।। 385
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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