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किसका मरना अच्छा, किसका जीना? श्री उपदेश माला गाथा ४४०-४४१ जोर से फेंके। गोले खंभे से जाकर टकराए और फूट गये। जिससे उन दोनों में से एक गोले में से दो कुण्डल और एक में से दो दिव्य वस्त्र निकले। उन्हें देखकर नंदारानी पुनः हर्षित हो उठी।
श्रेणिक राजा ने अन्तःपुर में आते ही कपिलादासी को बुलाकर हुक्म दिया- "दासी! तुम्हें साधु-मुनिराजों को दान देना है।" कपिला बोली- "स्वामिन्! आप मुझे यह काम न सौंपे। मुझसे दान देने का काम कतई न होगा। ओर कोई काम हो तो बताइए।" राजा ने जबरन उसके हाथ के साथ चाटु बंधवा दिया और साधु को उससे दान दिलाया। मगर दासी भी कम चतुर न थी। वह दान देते समय कहने लगी- "यह दान मैं नहीं दे रही हूँ मेरा चाटु दे रहा है।" इस उपाय में सफलता न मिलती देखकर राजा ने कालसौकरिक को बुलाकर सख्त आज्ञा दी"आज से तूं भैंसों को मारना छोड़ दे।" वह बोला-"राजन्! यह तो मेरी प्राणों से भी बढ़कर प्रिय आजीविका है, इसे मैं नहीं छोड़ सकूँगा।" यह सुनकर राजा ने उसे एक अंधे कुएं में गिरवा दिया ताकि वहाँ वह पशुवध न कर सके। पर वहाँ भी उसे एक युक्ति सोच ली। कुएं के पानी में हुए कीचड़ की मिट्टी लेकर उसने ५०० भैंसे बनाये और उनकी वधक्रिया की। राजा ने इस उपाय में भी असफलता जानकर सोचा- "वास्तव में, जिनेश्वर भगवान् के वचन सत्य हैं; वे मिथ्या कैसे हो सकते हैं?' इस प्रकार श्रेणिक राजा को भविष्य में नरक में जाने का विषाद और भविष्य में खुद के तीर्थंकर बनने का हर्ष हुआ ॥४३९।।।
केसिंचि य परो लोगो, अन्नेसिं इत्थ होड़ इहलोगो । कस्स वि दुन्नवि लोगा, दोऽवि हया कस्सई लोगा ॥४४०॥
शब्दार्थ - कई जीवों का परलोक हितकारी होता है इहलोक नहीं; कइयों का इहलोक हितकारी होता है, परलोक नहीं। किसी पुण्यशाली आत्मा के दोनों ही लोक हितकारी होते हैं और किसी-किसी पापकर्मी जीव के दोनों ही लोक अहितकर व दुःखदायी होते हैं। इस बात का तात्पर्य भगवान् महावीर के समवसरण में चार जनों को आई हुई छींक के वृत्तांत से समझ लेना ।।४४०।। . इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे की गाथाओं में ग्रंथकार स्वयं करते हैं
छज्जीवकायविरओ, कायकिलेसेहिं सुट्दु गुरुएहिं । न हु तस्स इमो लोगो, हवइ तस्सेगो परो लोगो ॥४४१॥
शब्दार्थ - षड्जीवनिकाय की विराधना से विरत साधु को मासक्षमण (एक 1. अन्य कथाओं में पुणिया श्रावक की सामायिक का वर्णन आता है वह यहाँ नहीं है।
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