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________________ दर्दुरांक देव की कथा श्री उपदेश माला गाथा ४३६ हुआ है।" सेडुक घर आया और अपने सारे कुटुंब को कुष्टरोग्रस्त देखकर कहा"तुमने मेरी अवज्ञा की, उसी का यह कुफल तुम्हें मिला है। मैंने ही तुम्हें कुष्टरोगी बनाये हैं।" उसे सुनकर सभी ने उसे "निकल जा दुष्ट! यहाँ से, अपना काला मुंह हमें मत बता!" इस प्रकार डांटफटकारकर धक्का देकर घर से निकाल दिया; नगर के लोगों ने भी उसकी बड़ी बेइज्जती करके नगर से बाहर निकाल दिया। वह इधर-उधर मारा-मारा भटककर राजगृही नगरी के सदर दरवाजे के पास पहुँचा। इधर भगवान् महावीरस्वामी का पदार्पण नगरी के बाहर उद्यान में हुआ। इसे सुनकर वहाँ के द्वारपालों ने सेडुक को दरवाजे के पास बैठे देखकर कहा"हम भगवान् महावीर को वंदनाकर आयें, तब तक तूं यहीं रहना और हमारे बदले पहरा देना।" सेडुक ने इसे मंजूर कर लिया किन्तु द्वारपालों से कहा- "मैं अत्यंत भूखा हूँ। मेरी भूख मिटाने की कोई तजबीज तो करो।" उन्होंने कहा- "देख, इसके लिये तुझे इस जगह को छोड़कर और कहीं नहीं जाना है। यह जो द्वार पर देवी का मंदिर है, यहाँ रोजाना पर्याप्त नैवेद्य चढ़ता है। तूं उस नैवेद्य को लेकर यथेष्टमात्रा में खाना और आनंद में रहना।" सेडुक को वहाँ तैनात करके सभी द्वारपाल भगवान् के वंदनार्थ गये। सेडुक ने भी उनके जाने के पश्चात् देवी के मंदिर में जो खीर, बड़े आदि पदार्थों का नैवेद्य चढ़ा था, उसे लेकर भरपेट खाया। इससे थोड़ी ही देर में उसे जोर की प्यास लगी; मगर द्वारपालों ने उसे अन्यत्र कहीं जाने की मना ही कर रखी थी, इसीलिए बेचारा पानी की तलाश में कहीं न जा सका; वहीं मन मसोसकर बैठ गया। बार-बार रह-रहकर उसे पानी का ही ध्यान आता। तीव्र पिपासा सह न सकने के कारण कर्मोदयवश पानी का ही ध्यान करते-करते वहीं उसकी मृत्यु हो गयी। दरवाजे के पास ही एक बावड़ी थी। वह मरकर उसी बावड़ी में मेंढक बना। कुछ अर्से के बाद विचरण करते हुए भगवान् महावीरस्वामी फिर राजगृही पधारे। नगरी की कुछ महिलायें उस बावड़ी से पानी भरने आयी; वे परस्पर बातें करने लगी- "सुना है, आज भगवान् महावीर यहाँ पधारें हैं। अतः बहनो! जल्दी करो; हमें उनके वंदन करने जाना है।" नगर नारियों का यह वार्तालाप उस मेंढक के कानों में पड़ा। सुनकर वह विचार करने लगा- "ऐसी (भगवान् महावीर के आगमन की बात तो मैंने पहले भी किसी समय सुनी है।" बार-बार ऊहापोह करते-करते उस मेंढक को जातिस्मरणज्ञान (पूर्वजन्म का ज्ञान) हो गया। उसे अपने पूर्वजन्म-(मैं मनुष्यभव में सेडुक नामक ब्राह्मण था) का खयाल आया। वह 380
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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