SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अगीतार्थ साधु के लक्षण व क्रिया निष्फल श्री उपदेश माला गाथा ४००-४०३ उसके उत्तर में गुरुमहाराज कहते हैं दव्यं खितं कालं, भावं पुरिस्पडिसेवणाओ य । न वि जाणइ अग्गीओ, उस्सग्गववाइयं चेव ॥४००॥ शब्दार्थ - हे शिष्य! स्थानांगादि सूत्रों तथा उत्सर्ग-अपवाद-व्यवहारप्रायश्चित्त आदि के निर्णायक छेदसूत्रों का रहस्य अध्ययन न किया हुआ अगीतार्थ साधु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को सम्यक् प्रकार से नहीं जान सकता; इस मनुष्य ने स्वेच्छा से पापसेवन किया है या परवश से पाप किया है? इसे भी वह नहीं जान सकता; उत्सर्ग (अर्थात् सामर्थ्य होने पर शास्त्र में कहे अनुसार ही क्रियानुष्ठान करना) और अपवाद (अर्थात् रोगादिक कारणों के होने पर यतनापूर्वक अल्पदोष का सेवन करना) इस व्यवहार को भी वह नहीं जानता; तो फिर उस अगीतार्थ की संयम-क्रिया या धर्मानुष्ठान कैसे सफल हो सकते हैं? ।।४००।। जहट्ठियदव्य न*याणड़, सच्चित्ताचित्तमीसियं चेव । कप्पाकप्पं च तहा, जुग्गं वा जस्स जं होई ॥४०१॥ शब्दार्थ - और अगीतार्थ साधु द्रव्य स्वरूप को यथास्थित यथार्थ रूप से नहीं जानता; और न वह सजीव, अजीव और मिश्रद्रव्य को भी निश्चयपूर्वक जानता है; यह वस्तु संयमी के लिए कल्प्य है या अकल्प्य है? इसे भी वह नहीं जानता; और कौनसी वस्तु बाल-ग्लानादिमुनि के योग्य है, कौन-सी नहीं; इसे भी वह नहीं जानता तो बताओ, उसके चारित्र की सिद्धि कैसे हो सकती है? ।।४०१।। जहट्ठियखितं न याणइ, अद्धाणे जणवए अ जं भणियं । कालं पि य नवि जाणइ, सुभिक्खदुभिक्ख जं कप्पं ॥४०२॥ शब्दार्थ - अगीतार्थ मुनि संयमानुकूल क्षेत्र को यथास्थित यथार्थ रूप से नही जानता; विहार करते हुए मार्ग में वसतिशून्य (निर्जन) स्थान में अथवा जनाकुल देश में जो विधि शास्त्रों में बतायी है, उसे भी वह नहीं जानता, तथा सुभिक्ष काल और दुर्भिक्ष काल में जिस वस्तु को कल्प्य या जिसको अकल्प्य कही है, उसे भी अगीतार्थ नहीं जानता ।।४०२।। भावे हट्ठगिलाणं, नवि जाणइ गाढडगाढकप्पं च ।। सहुअसहुपुरिसं तु, वत्थुमवत्थु च नवि जाणे ॥४०३॥ शब्दार्थ - भाव से-यह साधु हृष्टपुष्ट है, इसीलिए उसे यह वस्तु देना योग्य है, और यह ग्लान (रोगी) है इसीलिए इसे यह वस्तु ही देना योग्य है, इसे वह नहीं 368
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy