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श्री उपदेश माला गाथा ३६६-३६६ लाभालाभ दृष्टांत एवं अगीतार्थ साधु के लक्षण
चरणाइयारो दुविहो, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । . मूलगुणे छट्ठाणा, पढमो पुण नवविहो तत्थ ॥३९६॥
शब्दार्थ - चारित्राचार के दो भेद हैं-मूलगुण और उत्तरगुण। इन दोनों में से भी गुणविषयक चारित्राचार के छह भेद हैं-१. अहिंसा, २. सत्य, ३. अस्तेय ४. ब्रह्मचर्य, ५. मूर्छारहित अपरिग्रह और ६. रात्रि भोजन का त्याग। उसमें प्रथम अहिंसा महाव्रत में पांच स्थावर (पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय और चार त्रस-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय) इन नौ प्रकार के जीवों की हिंसा का त्रिकरण त्रियोग से त्याग होता है ।।३९६।।
सेसुक्कोसो मज्झिमं जहन्नओ, वा भवे चउद्धा उ ।
उत्तरगुणणेगविहो, दंसणनाणेसु अट्ठ ॥३९७॥ शब्दार्थ - शेष सत्यादि पांच मूलगुण उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार-चार प्रकार के हैं और उत्तरगुण के तो पिंडविशुद्धि आदि अनके भेद हैं। दर्शन (सम्यक्त्व) के और ज्ञान के आठ-आठ भेद प्रसिद्ध हैं। सर्वज्ञकथित समस्त सदाचार को अच्छी तरह जानकर अतिचारादि दोष रहित चारित्र की आराधना करना ही श्रमणत्व का सार है। अन्यथा ज्ञानशून्य साधक की करणी अंधे की तरह अनर्थकारी है ।।३९७।।
जं जयइ अगीयत्थो, जं च अगीयत्थनिस्सिओ जयइ ।
यट्टावेइ य गच्छं, अणंत संसारिओ होइ ॥३९८॥
शब्दार्थ - जो स्थानांगादि तथा छेदसूत्रों के रहस्य को नहीं जानता, वह अगीतार्थ, यदि तप, जप, संयम आदि क्रिया में उद्यम करता है अथवा अगीतार्थ की निश्रा में तप-जपादि क्रिया करता है अथवा स्वयं अगीतार्थ होने पर भी यदि साधुसाध्वी रूप गच्छ को तप-संयम आदि धर्म-क्रियाओं व अनुष्ठानों में प्रेरणा करता है तो वह अगीतार्थ अनंतसंसारी होता है। गीतार्थ मुनि का अथवा उसकी निश्रा में रहकर किया हुआ क्रियानुष्ठान ही मोक्षफल देने वाला हो सकता है ।।३९८।।
यहाँ शिष्य गुरु से पूछता है
कह उ जयंतो साहू, वट्टावेई य जो उ गच्छं तु ।
संजमजुत्तो होउं, अणंतसंसारिओ होइ? ॥३९९॥
शब्दार्थ - पूज्य गुरुदेव! यदि कोई साधु तप, जप और संयम में स्वयं उद्यम करता है और गच्छ में उसकी प्रेरणा करता है। इतना होते हुए भी वह संयमयुक्त अगीतार्थ साधु अनंतसंसारी कैसे हो जाता है? उसे अनंतसंसारी क्यों कहा गया?।।३९९।।
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