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श्री उपदेश माला गाथा ३७८-३८१ ।
पासत्यादि साधुओं के लक्षण है और गुरु के बुलाने पर अविनय से अभिमान से, विषयादि में लंपट वह बोलता है, परंतु 'अविनयपूर्वक अभिमान में आकर 'रे तूं आदि तुच्छ शब्दों से बोलता है; 'गुरुदेव' 'आप' भगवन् आदि सम्मान-सूचक शब्दों से नहीं ।।३७७।।
__. गुरुपच्चक्वाणगिलाण सेहबालाउलस्स गच्छस्स ।
न करेइ नेव पुच्छड़, निद्धम्मो लिंगउवजीवी ॥३७८॥
शब्दार्थ - जो साधु आचार्य, उपाध्याय, गुरुमहाराज, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित, बाल-मुनि और वृद्ध साधुओं आदि गच्छसमुदाय का कुछ भी कार्य नहीं करता, और न दूसरे साधुओं से पूछता भी है कि "मैं क्या करूँ? मेरे लायक कोई सेवा बताइए;' वह साधु धर्म से रहित है और केवल वेष धारण करके अपनी आजीविका चलाने वाला पार्श्वस्थ साधु है ।।३७८।।
पहगमणवसहि-आहार-सुयणथंडिल्लविहिपरिट्ठवणं ।
नायरइ नेय जाणड़, अज्जावट्टावणं चेव ॥३७९॥
शब्दार्थ - जो यतना से मार्ग देखकर चलना, 'निस्सीही पूर्वक स्वाध्यायस्थान या उपाश्रय में प्रवेश करना, प्रतिलेखन-प्रमार्जन करना, स्वाध्याय करना, बयालीस दोष रहित आहार लाकर समभाव से खाना, मलमूत्रादि को निर्दोष स्थान पर विवेक से परठना (डालना) अथवा अशुद्ध आहार-पानी, उपकरण आदि परठना; इन सब साध्वाचारों को जानता हुआ भी धर्मबुद्धि रहित होने से आचरण नहीं करता और साध्वियों को धर्म में प्रवृत्त करना नहीं जानता ॥३६९।। - सच्छंदगमण-उट्ठाण-सोयणो, अप्पणेण चरणेण ।।
समणगुणमुक्कजोगी, बहुजीवनयंकरो भ्रमइ ॥३८०॥
शब्दार्थ - अपनी इच्छानुसार स्वच्छन्दता से (बड़ों की अनुमति लिये बिना) जाने-आने, सोने, उठने और स्वमति कल्पित आचार से चलने वाला, ज्ञानादि श्रमणगुणों से रहित, मन-वचन-काया का खुल्ले आम मनमाना उपयोग करने वाला और अनेक जीवों का संहार करने वाला साधु इधर-उधर भटकता रहता है ।।३८०।।
वत्थिव्य वायपुन्नो, परिभमड़ जिणमयं अयाणंतो । थद्धो निव्यिन्नाणो, न य पिच्छइ किंचि अप्पसमं ॥३८१॥
शब्दार्थ - भवभ्रमण रोग को मिटाने के लिए औषध के समान जैनधर्म को पाकर भी जो उसे ठीक तरह से नहीं जानता; फिर भी थोड़ासा ज्ञान पाकर हवा से भरी हुई मशक के समान उछलता फिरता है, अभिमान में चूर होकर उच्छृखलता से स्वच्छंद भटकता है और विशेष ज्ञान-विज्ञान न होने पर भी उद्धत होकर जगत्
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