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पासत्थादि साधुओं के लक्षण
श्री उपदेश माला गाथा ३७३-३७७ उग्गाइ गाइ हसड़ य असंवुडो, सड़ रेड कंदप्पं । गिहिकज्जचिंतगो वि य, ओसन्ने देइ गिण्हइ वा ॥३७३॥
शब्दार्थ - जो गला फाड़कर जोर-जोर से चिल्लाकर गीत गाता है, हंसता है, कामोत्तेजक कथाएँ कहता है, गृहस्थों के गृहस्थसंबंधी कार्यों की चिंता किया करता है और शिथिलाचारी को वस्त्र आदि देता है अथवा उससे लेता है ।।३७३।।
धम्मकहाओ अहिज्जइ, घराघरि भमइ परिकहंतो य ।
गणणाइपमाणेण य, अइरितं यहइ उवगरणं ॥३७४॥
शब्दार्थ - जो केवल लोगों के चित्त को प्रसन्न करने के लिए ही धर्म आदि वैराग्य की कथाएं पढ़ता रहता है, घर-घर धर्मकथाएँ करता फिरता है। साधुओं के लिए चौदह और साध्वियों के लिए पच्चीस चोलपट्ट आदि उपकरणों की संख्या शास्त्र में कही है; किन्तु प्रमाण से अधिक संख्या में उपकरण संग्रह करके रखता है।।३७४॥
बारस बारस तिण्णि य, काइयउच्चारकालभूमीओ । अंतो बहिं च अहियासि, अणहियासे न पडिलेहे ॥३७५॥
शब्दार्थ - बारह लघुनीति की भूमियाँ, बारह बड़ीनीति की भूमियाँ और तीन कालों में ग्रहण के योग्य तीन भूमियाँ, इस प्रकार उपाश्रय के अंदर और बाहर कुल मिलाकर सताईस स्थंडिलभूमियाँ हैं। यदि साधु में शक्ति हो तो दूर जाना योग्य है और दूर जाने की शक्ति न हो या सहन न हो सके तो नजदीक की भूमि में मलमूत्रादि का उत्सर्ग करना उचित है। मगर जो उस भूमि का उपयोगपूर्वक प्रतिलेखन नहीं करता, उसे पासत्थादि समझना ।।३७५।।
गीयत्थं संविग्गं, आयरिअं मुयइ चलइ गच्छस्स । गुरुणो य अणापुच्छा, जं किंचि देइ गिण्हड़ वा ॥३७६॥
शब्दार्थ - सूत्रार्थ के विशेषज्ञ और मोक्षमार्ग के अभिलाषी अपने आचार्यमहाराज को जो साधु बिना ही कारण के छोड़ देता है, गच्छ के प्रतिकूल बोलता है, तथा गुरुमहाराज की आज्ञा के बिना ही दूसरे से वस्त्रादि ले लेता है अथवा दूसरे को दे देता है ।।३७६ ।। .
गुरुपरिभोगं भुंजड़, सिज्जासंथारउवगरणजायं । कित्तिय तुमं ति भासड़, अविणीओ गविओ लुद्धो ॥३७७॥
शब्दार्थ - जो गुरुमहाराज के उपभोग्य शयनभूमि या शयनकक्ष, तृण, संथारा (शयनासन), कपड़ा, कंबल आदि उपकरणों को स्वयं उपयोग में लेता 360