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लोभ के समानार्थक शब्द और नौ कषायों का वर्णन श्री उपदेश माला गाथा ३१०-३१३ अन्न को नहीं फेंककर खाना, धान्यादि वस्तु खराब हो जाने पर भी खाकर रोगादि बढ़ाना, (नष्टविनष्ट-सेवन का लोभ) धन पर मूर्छा, धन का अत्यधिक लोभ तथा हमेशा लोभ के परिणामों में ही डूबे रहना, लोभ का ही चिंतन करना। ये सभी लोभ के सामान्य-विशेष भेद हैं। ये जीव को महाभयंकर जन्म-मरण के प्रवाह रूपी महासमुद्र में डूबोते हैं ।।३०८-३०९।। अतः इस दारुण लोभ का त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
एएसु जो न वट्टिज्जा, तेण अप्पा जहट्ठिओ नाओ। . मणुआण माणणिज्जो, देवाण वि देवयं हुज्जा ॥३१०॥
शब्दार्थ - उक्त सभी कषायविकारों से जो महापुरुष दूर रहता है, उसीने अपनी आत्मा को यथार्थ रूप (शुद्ध रूप) से जाना है। ऐसी निष्कषाय आत्मा मनुष्यों के द्वारा सम्मान्य और इन्द्रादि देवों द्वारा भी पूज्य होती है ।।३१०।।
अब कषायों को सर्पादि की उपमा देकर वर्णन करते हैं- जो भासुरं भुयंगं, पयंडदाढाविसं विघट्टेइ ।
. तत्तो च्विय तस्संतो, रोसभुयंगुव्वमाणमिणं ॥३११॥ ___ शब्दार्थ - अगर कोई व्यक्ति चमकीले महाकाय और दाढ़ में प्रचंड विष वाले किसी सर्प को लकड़ी आदि से छेड़ता है तो उस पुरुष की मौत अवश्यं भावी होती है। इसी प्रकार भयंकर क्रोध रूपी सर्प को जो पुरुष छेड़ता है या भड़काता है, वह संयम रूपी जीवन का नाश करता है। अतः रौद्र सर्प की तरह क्रोध का त्याग करे ।।३११।।
___ जो आगलेइ मतं, क्यंतकालोवमं वणगइंदं । सो तेणं चिय छुज्जड़, माणगइंदेण इत्थुवमा ॥३१२॥
शब्दार्थ - जिस तरह कोई अज्ञानी मनुष्य साक्षात् यमराज के समान अति भयंकर जंगली हाथी को पकड़ ले तो वह उसका चकनाचूर कर देता है; उसी तरह अभिमान रूपी हाथी महाभयंकर है, वह समता रूपी स्तंभ को तोड़ने आदि के रूप में अनर्थ करता है। इसलिए उसका त्याग करे ।।३१२।।
विसवल्लीमहागणं, जो पविसइ साणुवायफरिसविसं । सो अचिरेण विणस्सह, मायाविसवल्लिगहणसमा ॥३१३॥
शब्दार्थ - यदि कोई पुरुष विषलता के महावन में प्रतिकूल हवा चलने पर प्रवेश करता है, तो वह उस जहरीली हवा के स्पर्श और गंध से थोड़े समय में ही खत्म हो जाता है। इसी तरह माया भी विषलतामयी अटवी के सदृश महाभयंकर है।
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