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________________ श्री उपदेश माला रणसिंह का चरित्र जिवैकैव सतामुभे फणाभृतां स्रष्टुश्चतस्त्रोऽथवा । ताः सप्तैव विभावसौ निगदिताः षट् कार्तिके यस्य च ॥ पौलस्य दशैवता:फणिपतौ जिह्वासहस्रद्वयं । जिह्वालक्षसहस्रकोटिगुणितास्ता दुर्जनानां मुखे ॥ सज्जनपुरुष की एक जीभ होती है, सर्प की दो, ब्रह्मा की चार, अग्नि की सात, कार्तिक की छह, रावण की दश, शेषनाग की दो हजार और दुर्जनों के मुख में लाख, सहस्र करोड़ गुणा होती है। आपने वचन का पालन नही किया है, किंतु मेरे प्राण मेरे आधीन है, इस प्रकार कहकर कमलवती रणसिंहकुमार के आवास के समीप बड़े वृक्ष से खुद को पाश से बांधकर कहने लगी-हे वनदेवता! मेरे वचन सुनो! रणसिंहकुमार को अपना वर बनाने की इच्छा से मैंने चिंतामणियक्ष की आराधना की थी। उसने वचन दिया था किंतु अपने वचन का परिपालन नहीं कर सका। इसलिए मैं आत्मघात कर रही हूँ। आगामी भव में वह ही मेरा पति हो इस प्रकार कहकर उसने गले में पाश डाला और खुद को नीचे लटकाया। सुमंगला दासी उसको ढूंढती हुई वहाँ आयी और उसकी स्थिति देखकर शोर मचाने लगी। - दासी की हाहाकार सुनकर रणसिंहकुमार शीघ्र ही सुमित्र के साथ वहाँ आया। दासी ने कमलवती के गले से पाश तोड़ा। वह मूर्छित होकर जमीन पर गिर पड़ी। शीतलादि उपचार से होश में आयी। कुमार ने पूछा--है सौभाग्यवती! तुम कौन हो? यह साहस क्यों किया है? किस कारण से गले में फांसा डाला था? सुमंगला ने कहा-स्वामी! अब भी क्या आपने इसको नही पहचाना? यह कमलवती आपको अपना वर मानती है। पिता ने भीमराजा के पुत्र से इसका विवाह निश्चित किया था। इससे खेदित होकर यह आत्मघात करने यहाँ आयी थी। मैंने इसे बचाया है। यह सुनकर रणसिंह हर्षित हुआ। सुमित्र ने गांधर्व विवाह से उन दोनों का पाणीग्रहण करवाया। रात्रि के समय कमलवती सुमित्र के साथ अपने महल आयी। तब संपूर्ण परिवार विवाहकार्य में व्यस्त था। कमलवती ने अपना वेष सुमित्र को दिया और स्वयं अन्य वेष धारणकर रणसिंह के पास आयी। लग्न समय में भीमराजा का पुत्र हाथी पर बैठकर बड़े आडंबर के साथ वहाँ आया। कमलवती वेष धारक सुमित्रकुमार के साथ महोत्सवपूर्वक पाणिग्रहण कर अपने आवास में लौट आया। अंग स्पर्श से उसे पुरुष जानकर पुछा-तुम कौन हो? सुमित्र ने कहा-मैं आपकी वधु हूँ। तुम मेरी पत्नी नही हो। तेरा अंग-स्पर्श पुरुष के समान दिखायी दे रहा है। सुमित्र ने कहा--हे प्राणनाथ! यह क्या आप बहकी बातें कर रहे है? आपने चेटक विद्या से नवपरिणीत मुझे पुरुष बनाया है।
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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