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________________ अधर्म-उत्तम संग-गिरिशुक और पुष्पशुक का दृष्टांत श्री उपदेश माला गाथा २२७ शब्दार्थ - मेरा दुष्ट आचरण कोई देख न ले, इस शंका से जो सदा शंकित रहता है; मेरा पाप खुल न जाय, इस दृष्टि से जो सदा भयभीत रहता है; मेरी बुरी प्रवृत्ति का कोई भंडाभोड़ न कर दे, इस डर से जो बालक आदि तक से दबा हुआ रहता है, वह चारित्र विराधक कुशील साधु इस लोक में साधुजनों द्वारा निन्दनीय होता है, और परलोक में भी वह दुर्गति का अधिकारी बनता है। इसीलिए चाहे प्राण चले जाय, मगर चारित्र की विराधना नहीं करनी चाहिए ।।२२६।। गिरिसुअ-पुप्फसुआणं, सुविहिय! आहरणं कारणविहन्नू । . वज्जेज्ज सीलविगले, उज्जुयसीले हवेज्ज जई ॥२२७॥ शब्दार्थ - 'सुविहित साधुओ! पर्वतीय प्रदेश में रहने वाले भीलों के तोते और फूलों के बाग में रहने वाले तापसों के तोते के उदाहरण से उन दोनों के दोषगुण का कारण संग को ही समझो। उत्तम व्यक्ति के संग से गुण और अधम के संग से दोष पैदा होते हैं। इसी तरह आत्मार्थी साधुओं को भी आचारहीन दुःशील साधुओं का संग छोड़कर अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सम्यग् आराधना करने में पुरुषार्थ करना चाहिए। क्योंकि जैसी सोहबत (संगत) होगी, वैसा ही असर होगा। जैसा रंग होगा, वैसा ही रंग चढ़ेगा' ।।२२७।। यहाँ प्रसंगवश उन दो तोतों का दृष्टांत दे रहे हैं। गिरिशुक और पुष्पशुक का दृष्टांत वसंतपुर नगर में कनककेतु नामक राजा राज्य करता था। एक दिन जंगल की सैर करने के लिए वह घोड़े पर बैठकर नगर के बाहर चल पड़ा। परंतु घोड़ा विपरीत चाल सीखा हुआ होने से अत्यंत तेज दौड़ा और राजा को वह एक बड़े घोर जंगल में ले पहुँचा आखिरकार घोड़ा अत्यंत थककर अपने आप एक जगह खड़ा हो गया। राजा घोड़े से नीचे उतरा और अकेला ही किसी विश्रामस्थान की तलाश में इधर-उधर घूमने लगा। इतने में ही कुछ दूरी पर बहुत-से मनुष्यों का शोर सुनाई दिया। इसीलिए राजा उसी और विश्राम लेने के लिए चल पड़ा। राजा ने कुछ ही कदम रखे थे कि एक पेड़ की डाली पर लटकते पींजरे में बंद एक तोता जोर-जोर से चिल्लाने लगा-"अरे भीलो! दौड़ौ-दौड़ो! कोई बड़ा राजा आया है, उसे पकड़ लो! उसे पकड़ने से वह तुम्हें लाख रुपये दे देगा।" तोते की आवाज सुनकर भील राजा की और दौड़े आ रहे थे। राजा ने एकदम चौकन्ने होकर अपना घोड़ा संभाला और उस पर सवार होकर भागा। घोड़ा इतना सरपट दौड़ा कि थोड़ी ही देर में उसने राजा को एक योजन दूर पहुँचा दिया। राजा को वहाँ एक 304
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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