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श्री उपदेश माला गाथा २२२-२२६
पासत्था संग वर्जन
का सेवन करता है; वह भी उसके अनंत संसार वृद्धि का कारण बनता है ।। २२१ ।। जड़ गिण्हड़ वयलोवो, अहव न गिण्हड़ सरीरवोच्छेओ । पासत्थसंगमो वि य, वयलोवो तो वरमसंगो ॥२२२॥
शब्दार्थ - अगर सुविहित साधु पार्श्वस्थ (उत्सूत्राचारी) के द्वारा लाया हुआ आहार- पानी व वस्त्र आदि ग्रहण करता है तो उसके महाव्रत का लोप होता है और नहीं ग्रहण करता तो उसका शरीर टिक नहीं सकता। इस प्रकार ये दोनों ही कष्टरूप हैं। मगर अनुभवियों की सलाह है कि ऐसे मौके पर शरीर को परेशानी में डाल देना या छोड़ देना अच्छा; लेकिन पासत्थ साधक का संग करके व्रत लोप करने की अपेक्षा पासत्थ का संग न करना ही अच्छा है ।। २२२ ।।
आलावो संवासो, वीसंभो संथवो पसंगो य ।
हीणायारेहिं सम्मं सव्वजिणिदेहिं पडिकुट्ठो ॥२२३॥
शब्दार्थ - हीन आचार वाले साधु के साथ बातचीत करने, साथ रहने, उसका विश्वास करने, गाढ़ परिचय करने और वस्त्रादि के लेने-देने का व्यवहार करने इत्यादि का ऋषभदेव आदि सभी तीर्थंकरों ने निषेध (मना) किया है ।।२२३।। अन्नोन्नजंपिएहिं, हसिउद्धसिएहिं खिप्यमाणो उ ।
पासत्थमज्झयारे, बलावि जई वाउली होइ ॥ २२४॥
शब्दार्थ - पासत्थों के साथ परस्पर बातचीत करने से, अथवा निन्दा विकथादि बातें परस्पर करने से, हंसी-मजाक या मखौल व तानेबाजी करने से पासत्थों के साथ रहने वाला सुविहित साधु धीरे-धीरे किसी बात की बार-बार जोरदार प्रेरणा के कारण एक दिन व्याकुल (व्यग्र) हो उठता है और शुद्ध स्वधर्म-संयममार्ग से भ्रष्ट हो जाता है। इसीलिए पासत्थों का संपर्क त्याज्य ही समझना चाहिए ।।२२४ ।।
लोए वि कुसंसग्गीपियं जणं दुन्नियत्थमइवसणं । निंदड़ निरुज्जमं, पियकुसीलजणमेव साहुजणो ॥ २२५ ॥ शब्दार्थ - जिसे कुसंगियों का संसर्ग करने का शौक है; जो उद्धत वेषधारी
है और जूआ आदि दुर्व्यसनों में ही रातदिन रचापचा रहता है; जैसे लोकव्यवहार में ऐसे लोगों की निन्दा होती है; वैसे ही सुविहित साधुजनों में भी ऐसे कुवेषधारी साधु की भी अवश्य निन्दा होती है, जो चारित्र पालन में शिथिल या आलसी है, उसे कुशीलजन ही प्रिय लगते हैं ।। २२५ ।।
निच्चं संकियभीओ, गम्मो सव्वस्स खलियचारितो । साहुजणस्स अवमओ, मओ वि पुण दुग्गइं जाड़ ॥२२६॥
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