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________________ श्री उपदेश माला रणसिंह का चरित्र से किसी गोत्री को राज्य समर्पित कर विजयसेन राजा ने अपनी पत्नी विजया रानी तथा सुजय नामक उसके भाई के साथ श्री वीरप्रभु समीप में दीक्षा स्वीकार की। __ भगवान् ने विजयसेन मुनि स्थविरों को समर्पित किया। क्रम से सिद्धांत का अध्ययन कर वे महाज्ञानी हुए उनका धर्मदास गणि नाम प्रख्यात हुआ, सुजय मुनि का जिनदास गणि नाम प्रख्यात हुआ। भगवान् को पुछकर बहुत साधुओं से युक्त वे दोनों मुनि भव्यजीवों को प्रतिबोधित करते हुए पृथ्वीतल पर विहार करने लगे। बाल्यावस्था में रणसिंह बालक्रीडा करता हुआ योवनावस्था में आया। सुंदर के घर में रहकर वह खेती की देखभाल करता। खेत के समीप में चिंतामणियक्ष से अधिष्ठित श्री पार्श्वनाथ का मंदिर है, जहाँ पर विजयपुर निवासी बहुत लोग श्रद्धापूर्वक आकर प्रतिदिन पूजा-स्नात्र आदि करते थे। यक्ष उनकी मनोवांछा पूर्ण करता था। कुतुहल से एकबार रणसिंह मंदिर में गया और प्रतिमा के संमुख देखते हुए खडा रहा। उसी समय जिनवंदन करने के लिए चारणऋषि वहाँ पर आएँउन्हें नमस्कार कर रणसिंह पास खडा रहा। योग्य जानकर साधु ने इस प्रकार उसे धर्मोपदेश दिया-- दुःखं स्त्रीकुक्षीमध्ये प्रथममिह भवे गर्भवासो नराणां । बालत्वे चापि दुःखं मललुलितवपुः स्त्रीपयःपानमिश्रं ॥ तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः । संसारे रे मनुष्या वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किञ्चित् ॥ मनुष्य को प्रथम गर्भवास का दुःख होता है। बाल्यावस्था में माता का स्तनपान और मल में लिप्त होने का दुःख, तारुण्यावस्था में विरह से उत्पन्न दुःख तथा वृद्धावस्था भी असार है। संसार में लेशमात्र भी सुख नही है। रणसिंह ने कहा--यह सत्य है। धर्म में उसकी रुचि देखकर, साधु ने पूछावत्स! क्या तुम प्रतिदिन पूजा करने के लिए यहाँ पर आते हो? उसने कहामेरे ऐसे भाग्य कहाँ जो यहाँ आकर पूजा कर सकूँ? साधु ने कहा-जिनपूजा से बहुत लाभ होता है। सयं पमज्जणे पुण्णं, सहस्सं च विलेवणे । सय सहस्सियामाला, अणंतं गीयवाइए ॥ जिनमंदिर में सफाई करने पर शत-गुना पुण्य मिलता है। प्रतिमा पर विलेपन करने से सहस्रगुणा, माला आरोपण करने से एक लाख गुणा और गानवाजिंत्र से अनंत गुणा पुण्य मिलता है। यदि तुम प्रतिदिन पूजा करने में असमर्थ हो तो भगवान् के दर्शनकर भोजन करने का नियम ग्रहण करोगे तो भी सुखी बनोगे। रणसिंह ने यह बात स्वीकार की। चारणऋषि आकाश मार्ग से चले गये। । प्रतिदिन जब खेत में भोजन आता है, तब रणसिंह हल छोडकर, = 3
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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