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श्री उपदेश माला गाथा १५२ गच्छ ममता के त्यागी आर्य महागिरि की कथा किन्तु विशेष लोभवश धातकीखण्ड को भरतक्षेत्र का खण्ड मानकर दिग्विजय करने चला। ४८ कोस विस्तृत चर्मरत्न पर अपनी सारी सेना और सामान रखकर सभी लवणसमुद्र पर से होकर जा रहे थे, तभी अकस्मात् चर्मरत्न के अधिष्ठायक देवों ने उसे छोड़ दिया; इस कारण सारी सेना, सुभूम तथा सामान सहित वह चर्मरत्न पानी में डूब गया। सभी लोग वहीं मर गये। अतिशय पापकर्म वश सुभूमचक्री मरकर सातवीं नरक में गया। इसीलिए संबंधियों का स्नेह भी कृत्रिम है; यही इस कथा का मुख्य उपदेश है ॥१५१।।
कुल-घर-नियय-सुहेसुअ सयणे य जणे य निच्च मुणिवसहा ।
विहरंति अणिस्साए, जह अज्जमहागिरी भययं ॥१५२॥ ___ शब्दार्थ - मुनियों में श्रेष्ठ धर्मधुरंधर मुनि अपने कुल, घर, स्वजन, संबंधी और सामान्यजनों का आश्रय लिये बिना सदा विचरण करते हैं। जैसे (जिनकल्प का विच्छेद हो जाने पर भी) आर्य महागिरि भगवान् आर्य सुहस्ति को अपना साधुकुल सौंपकर स्वयं जिनकल्पी साधु के समान विचरण करने लगे। इसी प्रकार अन्य साधुओं को भी विचरण करना चाहिए ।।१५२।। ___ इस संबंध में आर्य महागिरि का उदाहरण यहाँ दे रहे हैं
आर्य महागिरि की कथा आर्य श्री स्थलिभद्र के दो शिष्य थें-आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति। उनमें से बड़े शिष्य आर्यमहागिरि विशेष वैराग्य के कारण अपने गच्छसमुदाय का भार आर्य सुहस्तिसूरि को सौंपकर स्वयं जिनकल्पी साधु की तरह संयम में पुरुषार्थ करते हुए अकेले ही विचरण करने लगे। ये महामुनि खासतौर से साधुजीवन की धर्मक्रियाओं में प्रत्यनशील रहा करते थे। जब आर्य सुहस्तिसूरि गाँव के अंदर पधारते तो आर्य महागिरि उसी गाँव के बाहर रहते। इसी गच्छ के निश्रा में वे विचरण करते थे। ___ एक बार आर्य सुहस्तिसूरि विहार करते हुए पाटलिपुत्र पधारें। वहाँ आर्य महागिरि उस नगर के सारे क्षेत्र (एरिया) के ६ विभाग करके ५-५ दिन तक प्रत्येक विभाग में भिक्षा के लिए जाते थे; और नीरस आहार करते थे। एक दिन आर्य सुहस्तिसूरि वसुभूति नामक श्रावक के यहाँ उसके कुटुम्ब को प्रतिबोध देने के लिए पधारे थे और उपदेश दे रहे थे; तभी अकस्मात् आर्य महागिरि भी वहाँ पहुँचे। उन्हें देखते ही आर्य सुहस्तिसूरि ने खड़े होकर सविनय वंदन किया। इससे आर्य महागिरि भिक्षा लिये बिना ही वापिस लौट गये। वसुभूति श्रावक ने आर्य
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