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श्री उपदेश माला गाथा १५१ स्वजन भी अनर्थकर, संबंधी परशुराम - सुभूमचक्री की कथा दन्तैरुच्चलितं धिया तरलितं पाण्यङ्घ्रिणा कम्पितम्, दृग्भ्यां कुड्मलितं बलेन लुलितं रूपश्रिया प्रोषितम् । प्राप्तायां यमभूपतेरिह महाधाट्यां जरायामियं, तृष्णा केवलमेकैव सुभटी हत्पत्तने नृत्यति ॥१२७|| अर्थात् - यमराज की महान् धाड़ रूपी इस वृद्धावस्था के आ धमकने पर दांत हिलने लगते हैं; बुद्धि चंचल हो जाती है; हाथ-पैर कांपने लगते हैं; आँखें कमजोर हो जाती है; बल नष्ट हो जाता है; रूपश्री भी विदा हो जाती है; हृदय रूपी नगर में केवल एक तृष्णा रूपी वाराङ्गना सुभटी नाचती रहती है । । १२७ ।। इस प्रकार के उत्तर से भाव - मुनि की दृढ़ता जानकर दोनों देव बड़े प्रसन्न होकर उनकी प्रशंसा करने लगे। इसके पश्चात् जैनदेव ने तापस भक्तदेव से कहा"जैनों का दिव्यस्वरूप तो हमने देख-परख लिया, अब चले तापस स्वरूप को भी परख लें।'' इस प्रकार दोनों एकमत होकर तापस- परीक्षा के लिए जंगल की ओर चल दिये। वहाँ उन्होंने एक जटाधारी वृद्ध एवं तीव्र तपश्चरण कर्ता यमदग्नि नामक तापस को देखा। उसकी परीक्षा करने के लिए वे दोनों देव चकवा - चकवी का रूप बनाकर उसकी दाढ़ी में घोंसला बनाकर बैठ गये। फिर चकवा मनुष्यवाणी में बोला- 'हे बाले ! तूं यहाँ सुख से रह। मैं हिमालय पर्वत पर जाकर आता हूँ।' चकवी ने कहा - "प्राणनाथ! मैं आपको वहाँ हर्गिज नहीं जाने दूंगी। क्योंकि जो पुरुष वहाँ जाता है, वह वहीं लुब्ध हो जाता है। अत: यदि आप वहाँ से न लौटे तो मेरी क्या दशा होगी? मैं अबला अकेली यहाँ कैसे रह सकूंगी? आपका वियोग मुझ से कैसे सहा जायगा ?" यह सुनकर चकवा बोला - "प्रिये ! तूं ऐसी हठ क्यों पकड़ रही है? मैं जल्दी ही वहाँ से वापिस लौट आऊंगा। यदि न आऊं तो मुझे ब्राह्मण, स्त्री, बालक और गाय की हत्या का पाप लगे!" चकवी कहने लगी"मैं ऐसी शपथ को नहीं मानती। मैं तो आपको तभी जाने दे सकती हूँ, यदि आप वापिस लौटकर न आये तो यमदग्नि तापस का पाप आपके सिर पर धारण करेंगे। " चकवा बोला - 'ऐसी बात मत कह। कौन ऐसे पाप को सिर पर ले!' इस संवाद को सुनकर यमदग्नि तापस ध्यान से विचलित हुए और चकवा - चकवी को पकड़कर क्रोध से आगबबूला होकर बोले - " मेरा ऐसा कौन-सा अधिक पाप है?'' चकवे ने उत्तर दिया- मुने! क्रोध मत करो! धर्मशास्त्र में जो बात कही है; उसे शांति से सुनो
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च ।
1 तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा स्वर्गे गच्छन्ति मानवाः ॥१२८॥
1. "गृहधर्ममनुष्ठाय ततः स्वर्गं गमिष्यति' अर्ध गाथा हेयोपादेवा टीका में इस प्रकार है पेज नं. ४७३
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